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Sunday, December 16, 2012

नेपुरा-V

रात हो चली थी। रामनिवास काँख में टॉर्च दबाकर लुंगी कस रहा था। नेपुरा चुल्हे में भूसा झोंक रही थी, रामसुहास बगल में दीये की रौशनी में चिल्ला रहा था- सात अठे छप्पन, सत नवाँ तिरेसठ...पड़ोस में अंडरबिअर पहने रात से भी काला बलिराम पत्नी पर रोब झाड़ रहा था...झिंगुर वहीं कुछ दूर पर राग अलाप रहे थे।

मईया,  आते हैं ज़रा राधामोहन बाबू के दलान पर से, माहौल का थोड़ा जायजा लेना है। जा न, बता काहेला रहा है, ऐसे भी तो यहाँ गरहन की तरह ही लगा हुआ है- काम के न काज के, दुश्मन अनाज के। रामनिवास का गुस्सा ऐसे तो हमेशा नाक पर ही रहता था लेकिन  माँ पर उसे निकलते कम ही देखा जाता था। बिना कोई जवाब दिए रामनिवास अँधेरे को लाठी और टॉर्च से चीरते हुए राधामोहन बाबू के घर की ओर कुच कर गया। रास्ते में एक-दो कुत्तों की इच्छा हुई उस पर लपकने की, पीछे से भौंकते हुए काफी नजदीक आ भी गए पर हाथ में लाठी देखकर दुम हिलाने लगे।

दलान पर पूरी मंडली जमी थी। खाट-चौकी सब भरा पड़ा था| कोई बीड़ी सुलगाने में लगा था तो कोई खैनी लगाने में जुटा था।बगल में एक कुर्सी लगी थी जिस पर राधामोहन बाबू दिखाई दे रहे थे। चुरामन महतो खद्दर की चादर ओढ़े छींके जा रहे थे- बुढ़ापे पे पूस की रात हमेशा से भारी रही है। सबकी खातिरदारी में दो लाल्टेन जला दिए गए थे जिससे लोग एक-दूसरे के चेहरे को देख सकें और राधामोहन बाबू उन सभी चेहरों को भली-भाँति पढ़ सकें।

सुखीराम के हाथों में चिलम था। चेहरा ऊपर उठाये थोड़ी देर वो छत को देखता रहा फिर कुछ पल के लिए उसी अवस्था में आँखें मूँद ली। आँखें खुलीं तो मुँह खुला- बम भोले...फिर मुँह चिलम के स्निग्ध स्पर्श को पाकर उससे लिपट गया और पूरी ताकत से धुँए को सुखीराम अन्दर लेने लगा। जब मुँह और चिलम के प्रेम-प्रलाप का अंत हुआ तो उन काले अधरों से धीरे-धीरे धुँए का प्रवाह प्रारम्भ हुआ- ऐसा लग रहा था जैसे अभी-अभी सुखीराम ने आँखें मूँदकर जिनसे बातें की थीं उन्हीं को इन सूखे-फटे अधरों का स्पर्श पाया ये लहराता-बलखाता धुआँ समर्पित था। चिलम से प्राप्त ऊर्जा ने उसके शरीर के साथ-साथ मस्तिष्क तक को जीवित कर दिया। दोनों भौओं को सिकोड़कर पालथी मारते हुए सुखीराम पहले तो अपने गंभीरतम मुद्रा में गया और फिर बोला- मालिक! एक काम कीजिए। पहले तो एकगो अमदी चुना जाए जो अलग-अलग जात का हो और जिसको काम के नाम पर नींद न आता हो... माने कि एकदम फिट अमदी हो खासकर बात बनावे में। उ सब अमदी का जवाबदेही रहेगा कि अपन-अपन जात के लोगों को आपके तरफ झुकाए। कैसे झुकाएगा- डींग हाँकेगा कि ओझा-गुनी से मंतर पढ्वायेगा- उ सबका समस्या है, आपको टेंसन लेवे के  कोई ज़रूरत नहीं। एक काम रहेगा पर आपका...क्या सुखीराम?...दिन-भर के बीड़ी-सिगरेट का खर्चा सबको भोरे-भोरे ही आप दे दिया कीजिए...पेट भरा रहेगा तबे काम हो पाएगा। सुभद्दर बाबू एक कोने में आँखें बंद किये पैर हिला रहे थे। धीरे से चुटकी लिए-बड़ा सही दिमाग लगाए सुखीराम, हम तो समझते थे तुम्हारा जीवन बम-भोले बम-भोले करते हुए चिलम को समर्पित हो  चुका  है...उपरका तल्ला तो खालिए होगा तोर पर आज मालूम पड़ा वहाँ तो साक्षात सरसती मइया विराजमान हैं। सुखीराम दाँत निपोरकर थोड़ा-सा हँसा फिर साधु-महात्मा की तरह अपना विचार देकर चिलम की दुनिया में अन्तर्धान हो गया...सुभद्दर बाबू के शब्द उसके कानों तक कैसे पहुँचते जब उसकी आत्मा चिलम के माध्यम से कैलाशपुरी पहुँच चुकी थी।

सुखीराम की बातों में वजन था, शरीर में हो न हो। सबने उसके प्रस्ताव का अपनी-अपनी चादर से बगुला के चोंच की तरह मुँह निकालकर अनुमोदन किया फिर बाहर की बर्फीली हवा के डर से अन्दर कर लिया।

कुछ वैसे लोग जो खुद को चाणक्य का अवतार समझते थे, उनका भरोसा सांख्यिकी पर अधिक था। उनके भीतर का राजनीति-शास्त्र बाहर आने के लिए उफान मार रहा था। "राधामोहन बाबू एक बार ज़रा सब जात का वोट गिन लिया जाए"- पान के पीक से भरे हुए मुँह से इस तरह की आवाज निकाल लेना किसी साधारण मनुष्य के औकात से बाहर की बात थी। इसके पीछे कई वर्षों की अविरल तपस्या थी सुद्धू बाबू की। होठों के एक कोने से थोड़ा-थोड़ा पीक रिसकर बाहरी त्वचा पर एक छोटी लाल लकीर बना रही थी जिसे अपने अस्तित्व को जिंदा रखने की बड़ी चिंता थी। ये जल्द अगर काबू में नहीं की गयीं तो उन्हें ठुड्डी के सहारे नीचे जाकर बूँद बनने से कोई नहीं रोक सकता था...हाँ भाई!ज़रूर गिन लिया जाए- विद्या बाबू का पुरजोर समर्थन आया जैसे उनके अन्दर भी बड़ी देर से हलचल मची थी। गिनती शुरु हुई-अहीर का करीबन एक हज़ार; पासवान, मोची, चौधरी, नाई, रजक बगैरह सबको मिलाके दो हज़ार; महतो के दो सौ; शर्मा जी और श्रीवास्तव जी लोगों का लगभग पंद्रह सौ। पीछे से बलिराम मुँह उचकाके चिल्लाया- पूरा जोडके कित्ता हुआ मालिक? फिर धीरे से गर्दन नीचे करके बुदबुदाया- अपने पंडित हैं त सबको यहाँ पण्डिते बुझ रहे हैं...अनपढ़ आदमी का कोई कदर ही नहीं है। राधामोहन बाबू बलिराम के मनोभाव को भाँप गए, बोले- करीब साढ़े चार हज़ार बलिराम।

रामनिवास चुक्के-मुक्के लाल्टेन के नीचे बैठा हुआ था। चिराग तले अँधेरा जितना होता है उतना उसके चेहरे पर फैलने के लिए पर्याप्त था। उसी अँधेरे की ओट में उसका मुँह खुला-मालिक! फिर हर जात का एक-एक कारकर्ता अभिए चुन लीजिए- कल्ह करे  से आज करे, आज करे से अब। सबको पता तो लग ही गया है कि केतना-केतना वोट सबके जिम्मे है...एक-एक नहीं दो-दो रामनिवास- राधामोहन बाबू चाय की चुस्की लेते हुए बोले। हरिजन वोट पर रामनिवास और बलिराम काम करेंगे- अपना नाम सुनकर काले बलिराम का छोटा सा काला अहंकार बाहर आया और दो मोतियों जैसे दाँत दिख गए। उसे लगा एक राधामोहन बाबू ही उसके कोयले के समान बदन के पीछे छुपे हुए हीरे को पहचानते हैं बाकि सब लोग तो ऐसे ही हैं। उच्चवर्गीय समाज को सम्हालने की ज़िम्मेदारी होगी सुद्धू बाबू और विद्या बाबू पर- दोनों ये सुनकर भी हथेली पर खैनी मलते रहे जैसे कुछ हुआ ही नहीं, बस स्वीकृति में दोनों ने सर हिला दिया। महतो जी वगैरह को सुखीराम देखेंगे जिनकी सहायता चुरामन महतो करेंगे। सुखीराम का चिलम अब तक बुझ चुका था और चुरामन महतो अभी भी छींके जा रहे थे। दोनों की तरफ से आवाज आयी- जैसा हुकुम सरकार। यादव भाइयों के संसर्ग में रामजी यादव होंगे। रामजी यादव एक पाजामा और बुशर्ट पहने वहीं बैठे थे। रंग अँधेरे में भी गोरा ही दिख रहा था और बुद्धि से प्रखर प्रतीत होते थे। बी.ए. तक की पढ़ाई करने के पश्चात गाँव में ही आकर इन्होने एक दुकान  खोल दी थी जहाँ आये दिन अहीरों का जमघट लगा रहता था। अँधेरे में भी उनके सर पर सरसों का तेल साफ़ चमक रहा था। बाहर से बोल पड़े- हमरा पर इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी! पर भीतर से बोल रहे थे- एक-दम सही आदमी चुने आप राधामोहन बाबू, सारा वोट दुकान पर बैठे-बैठे न वटोर दिए तो भगवान् कृष्ण के वंशज में से हमरा नाम कटवा दीजिएगा।

रात के 11 बज चुके थे। बाहर सामने की सड़क से एक बच्चा चिल्लाया- बाबूजी! मइया एक-दम गरम है, जल्दी चलिए न त खायेला भी आज न मिलेगा... सुखले सोना पड़ेगा...फिर राधामोहन चा खिलावे न आवेंगे। सुभद्दर बाबू भरी सभा में  अपनी बेईज्ज़ती टाल गए, हँसकर बोले-भागता है हियाँ से...दू लाठी तोरा लगेगा और दू  तोर मइया के तब जाके तू लोग बोले के सहूर सीखेगा। इसी बीच सुखीराम बोल पड़ा-अब मीटींग बर्खाश्त किया जाए राधामोहन बाबू, ठंडा बहुत लग रहा है, जादा देर रुक गए त सुभद्दर बाबू घर से बाहर हों न हों चुरामन चा दुनिया से ज़रूर हो जाएँगे|  सच में बहुत रात हो चुकी है। कल एक-एक चक्कर सब अपने-अपने आदमियों के बीच लगाके आएगा और फिर रात को यहीं सात बजे मिलेंगे। 

जाते हुए कार्यकर्ताओं को राधामोहन बाबू सौ-सौ का नोट थमाकर अलविदा कहने लगे |  कुछ लोग बदले में हाथ जोड़कर विदा ले रहे थे और कुछ बिना किसी प्रतिक्रिया के आगे बढ़ रहे थे। रामनिवास  दलान पर ही लुंगी में चावल बाँध रहा था।

               

Friday, July 6, 2012

नेपुरा-IV

छठ (सूर्य देवता की पूजा) पूजा का आज अंतिम अर्ग था। तुलेशर जब तक ज़िंदा था तो नेपुरा भी माथे से शुरु करके नाक तक आज  सिंदूर लगाती थी  पर अब ना तुलेशर था और ना ही वो सर से नाक तक की लंबी लाल लकीर। अर्ग के बाद नदी का तट पूर्ववत् सूना था… कहीं कुछेक अगरबत्तियाँ सुगबुगा रही थीं और कहीं-कहीं धूप-दीप अपनी अंतिम साँसें बड़ी मुश्किल से ले रहे थे। नेपुरा विचारहीन अवस्था में वहीं बैठी थी। उसकी आँचल में प्रसाद बँधे थे जिस पर से रामसुहास की नज़रें हट नहीं रही थीं। माँ मेला देखे चल न- रामसुहास ने आग्रह किया| नेपुरा उसकी नन्ही ऊँगलियों को थामकर बिना कुछ बोले साथ चल दी। गाँव का मेला- कहीं झुला गोल घुम रहा था तो कहीं जलेबियों पर मक्खियाँ भिनबिना रही थीं... किसी तरफ़ से बंदूक के ठाँय-ठाँय की आवाज आ रही थी तो किसी तरफ़ से तुड़तुड़ी की… बच्चे अपने-अपने बाप के कंधे पर बैठकर अलग-अलग भाव चेहरे पर प्रदर्शित कर रहे थे- कोई मुँह में सिटी लेके जोर-जोर से बजा रहा था, कोई मिठाई की तरफ़ एक हाथ से ऊँगली दिखाकर  रो रहा था और दूसरे हाथ से अपने पिता को मार रहा था ... कोई हाथ में गुब्बारे लिए ऐसे मुस्कुरा रहा था जैसे गौतम बुद्ध की तरह उसे बचपन में ही ज्ञान की प्राप्ति हो गई हो ... पर रामसुहास का चेहरा भावहीन था, माँ के आँचल की एक कोरी को ही वो मिठाई समझकर चबा रहा था…नेपुरा शांत खड़ी थी- बिल्कुल क्रियाहीन।  उसकी गरीबी मजबूरी का लिबास पहने उस पर हँस रही थी| जब उससे अपने बेटे की विवशता नहीं देखी गई तो मेले से गाँव की ओर तेज़ कदमों से चलना शुरु कर दिया। रामसुहास रास्ते में बस इतना बोला- दद्दु था तो मुझे जलेबी खिलाता था… वेदना की पराकाष्ठा थी इस नन्ही आवाज में जो एक विधवा की सूखी आँखों से किसी तरह आँसू की एक बूँद निकाल पायी।


गाँव के बाहर की तरफ़ जो नीम का पेड़ था, उसकी छाँव तले एक गमछा बिछा दिया गया था और उसके चारों तरफ़ चार लोग बैठे हुए थे। ताश के पत्ते दो ऊँगलियों की सहायता से बड़ी कलाकारी से उस पर फ़ेंके जा रहे थे।ताश खेलनेवालों में खुदा का एक नूर था, नाम था- बलिराम। रंग कोयले से भी थोड़ा गहरा, काले चेहरे पर चार चाँद लगाते उस पर विराजमान कुछ और काले धब्बे, नाक सामान्य, काले होठों के नीचे नमक और सरसो-तेल से चमकाये गए उजले मोतियों जैसे दाँत... बाल, भौं और आँख की पुतलियाँ-सब काली पर धूल-धूसरित। शरीर पर एक अंडरवियर और एक गमछा के अलावा उसे कुछ रखना मंजूर नहीं था। ताश का माहौल जहाँ भी बनता, गमछा ज़मीन पर बिछ जाता और वो अंडरवियर में साक्षात् ब्रह्म का रुप लिए एक किनारे बैठ जाता। नेपुरा पर नज़र पड़ते ही उलझे बालों में ऊँगलियाँ फ़ेरते उसकी भविष्यवाणी हुई- बेटा रामनिवास! लूँगी पिछवाड़े पर बाँध जल्दी और कट ले, नेपुरा दीदी आ रही है। 


रामसुहास चिल्लाया- भईया! रामनिवास का एक तरफ़ का गाल जो खैनी के कारण फ़ुला हुआ था, अचानक से माँ को देखकर पचक गया। नेपुरा से नज़र बचाकर उसने जल्दी से खैनी थुका और बोल पड़ा- मैं खेल थोड़े रहा था वो तो बलिराम पकड़के ले आया था... बलिराम दूर से ही दो दाँत दिखा रहा था कि  कहीं नेपुरा उस पर ना बरस पड़े। नेपुरा कुछ नहीं बोली बस उन्हीं कदमों से घर की तरफ़ बढ़ती चली गई। पीछे-पीछे रामनिवास भी दबे कदमों से चलने लगा... मर काहे नहीं जाता उसी नीम पर रस्सी से लटकके... हम्मर जान तो छूटेगा ...एक हाथ जीभ बाहर आउ हम फ्री... दुनिया से तोरा मुक्ति मिल जाएगा रे रमनिवसवा और तोरा से हमरा .. बिना बाप के बेटा एकदम खुला साँढ़ हो जाता है।रामनिवास बस सर झुकाये सब सुन रहा था पर पीछे-पीछे आना उसने छोड़ा नहीं था। 

गालियों से भरा सफ़र घर के बाहर खाट पर बैठे फ़कीरा के पास आकर खत्म हुआ। नेपुरा पूछी- मालिक आए थे का? हाँ, रामनिवास के खोजे आए थे... इ करमजला तो नीम के नीचे ताश खेल रहा था...अब जो जल्दी मालिक के पास इहाँ का टुकुर-टुकुर हमरा निहार रहा है...

राधामोहन बाबू सिगरेट जलाये घर के बाहर ही बैठे थे। का बात है मालिक, टेंसन में लग रहे हैं?- रामनिवास पूछा।  राधामोहन बाबू आसमान की तरफ़ देखकर एक दुखी आत्मा का अभिनय करते हुए बोले- मुखिया के चुनाव में सब मिलके खड़ा करवा दिया है रामनिवास, हम तो कह रहे थे बुढ़ापा में काहे मरवाना चाहते हो...घर तो हमरा से चलता नहीं, इलाका का चलाएँगे... पर कोई न माना, कल जाके परखंड में अर्जी भी देना है| मालिक इ में पिरौबलम का है? आप मुखिया बने त हम्मर गरीबी भी कुछ कम हो  जाएगा... पर विरोध में रामदहिन खड़ा है रामनिवास, उसके पास पइसा भी बहुत हो गया है आउ सुने हैं छोट जात का समर्थन भी जबरदस्त है उसको। मुँडा चमार के हियाँ रोज के उठना-बइठना है... ओकर घर में ताड़ी पिए बगैर कभी रात में अपन घरे सोए तक न जाता है वो| का बात करते हैं मालिक! रामनिवास अप्पन मोंछ कटवा के कुइयाँ में फेंक देगा अगर हरिजन के एक्को वोट आपके खिलाफ़ टस से मस हुआ त... लिख लीजिए! 

अगली सुबह काको प्रखंड में अर्जी दी गई। राधामोहन बाबू का गला गेंदे के फूल की माला से सुसज्जित था। रामनिवास चिल्ला रहा था- आपका मुखिया कैसा हो... राधामोहन बाबू जैसा हो... उधर से रामदहिन बाबू के समर्थक चिल्ला पड़े-- आधा रोटी तावा में... राधामोहन सिंह हावा में। चुनाव प्रचार यहीं से शुरु हो गया था। प्यादे से मंत्री तक- शतरंज के सारे मोहरे आज रात तय होनेवाले थे...नेपुरा खुश थी, उसे पता नहीं था क्यूँ!

Thursday, March 29, 2012

नेपुरा-III

पूस की रात। हल्कु चौधरी की जगह रामनिवास खेत पर बैठा था हाथ में लाठी लिए और खादी का कम्बल ओढ़े। पानी से भरा लोटा बगल में रखा था। वह बैठे-बैठे आसमान के सितारों में सप्तर्षि को ढूंढता हुआ नित्य क्रिया से निवृत्त होने में इस कदर लीन था मानो जन्म-जन्मान्तर से उसमें धरती माता को प्रसाद देने की जो स्पृहा पनप रही थी वो आज पूरी हो रही हो। खड़ा होकर जब उसने धोती झाडी तो आस-पास के मेढकों ने अपना टर्रटर्राना बंद करके नतमस्तक होकर उसका अभिवादन किया। चेहरे पर चरम संतोष लिए रामनिवास फिर गाँव की तरफ चल पड़ा। रास्ते में रामदहिन को देखकर पूछा- क्या रामदहिन बाबू! आजकल फीटर से पानी कम पटाते हैं और लाचार किसान के शरीर का पानी ज्यादा चूसते हैं! मकान दो-मंजिला से ती-मंजिला ठोका गया है... ऊपर भी कुछ पइसा  लेके जाइएगा का? रामदहिन उबल पड़ता- साला-चार दिन का छोकरा, जवान तो देखो कैंची से भी तेज चल रहा  है...शेरुआ का क्या हाल है रे? शेरुआ का नाम सुनते ही रामनिवास के रक्त में ज्वार फूट पड़ता- मालिक भगवान् का शुक्र मनाओ कि ऊँची जाति में पैदा हुए हो नहीं तो आज ये लाठी लाल रंग में नहाकर ही घर पहुंचती...जा-जा तोरा जईसन के रे रामनिवसवा तो हम काँख में दबाके-भोरे साँझे मूतते हैं। अच्छा मालिक टाइमे बताएगा जब हम्मर चक्कर में पड़ेंगे त...

सुबह चतुर्दिक कोहरा छाया हुआ था। धरती जैसे अपनी प्यास बुझाने के लिये बादल से एकाकार हो गई थी। कोई भी जीव-जन्तु अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं थे, हर तरफ जड़ता आ गई थी पर धरती को कोहरे की चादर में लिपटे हुए देखनेकी मनसा से अथवा सुबह-सुबह लक्ष्मिनिया की बकरियों को बाहर जाते देखकर एक आकृति जूट का बोरा ओढ़े अनवरत गतिशील थी| उसके हाथों में बाँस की एक छड़ी लचक रही थी। कुछ ही पलों में वह जादुई छड़ी कोहरे को चीरते हुए तरकश से निकले बाणों की तरह उन निरीह बकरियों पर बरस रही थी और उनके पास मिमियाने के अलावा कुछ चारा न बचा था।कोहरा उनके लिए वरदान सिद्ध हो रही थी इधर-उधर भागने में।

जब सूरज की किरणें कोहरे को भेदती हुई धरती को सुनहले रंग में रंग रही थीं तब लक्ष्मिनिया की सुंदर गालियों से सुसज्जित कर्कश आवाज सबके कानों तक अनायास ही पहुँचने लगी। मार डाला... कमीना पर पहले से ही शक था कि इसकी नज़र में खोट है... अपनी गाय को तो सोना खिलाता है... ये थोड़ी सी घास क्या इसके मालिक की चर गई इसका करेजा ही जल गया...कल तक पाजामा में नाड़ा नहीं डाल पाता था... आज लाठी हाँक रहा है... रामनिवास तमतमाया- देख गे लक्ष्मी दीदी, बड़ी दिन से खून पी-पी के हम देख रहे थे... लगा अब तु सुधरेगी,अब सुधरेगी...पर बेगार का चस्का कहाँ बिना लात के छुटता है... आज कसर पूरा हो गया।

जब राधामोहन बाबू ने बीचबचाव किया तब जाके मामला थोड़ा शांत हुआ। लक्ष्मिनिया बकरियों को हाँकती हुई और मुँह से रामनिवास को आशीर्वाद देती हुई अपने घर के पथ पर अग्रसर थी। रामनिवास राधामोहन बाबू के बरामदे पर लाठी पटक रहा था।

रामनिवास का छोटा भाई था- रामसुहास। उसके मिट्टी खाने के दिन अब चले गए थे और गुड़ चुराना उसे अब ज्यादा भाने लगा था। नेपुरा जब किसी उपवास के बाद गुड़ का बर्तन टटोलने भंडार घर में गई तो एक-दो आवागमन करती चीटियों के अतिरिक्त उसे कुछ हाथ नहीं लगा। माज़रा साफ़ था नेपुरा के सामने। रामसुहास के कान नेपुरा के हाथ में कुछ ही समय पश्चात मसले जा रहे थे। रामसुहास चिल्ला रहा था- अब ना मइया! माँ का यह नया स्वरुप जो उसे आज दिखा था कुछ अच्छा नहीं था। गुड़ क्या इतना महत्त्वपूर्ण हो सकता है कि उसके लिए रामसुहास को पीटा जाए। पर उसे इस बात का एहसास नहीं था कि गुड़ की महत्ता तब और बढ़ जाती है जब उसके अतिरिक्त कुछ भी खाया नहीं जा सकता और ऐसे भी भूख जब अपने चरम पर हो तो सब समान व्यवहार करती हैं- नेपुरा या लक्ष्मिनिया ।

अतीत के गर्द समय की बारिस को सोखकर मिट्टी बनने लगे थे। फ़कीरा नीम के पेड़ तले गमछा बिछाकर बैठा रहता था, गाँव के और लोग भी वहाँ आकर कौड़ी खेला करते थे, कहकहों का दौर चल पड़ा था। नेपुरा थाली में खाना लेके फ़कीरा को वहीं खिला आती थी। बगल के ‘इस्कूल’ में बच्चे चिल्ला रहे थे- दो दुनी चार… दो तिहाई छ:… पास बैठे कुत्ते कौड़ी खेलना और गणित – दोनो ही जीभ निकालकर एक साथ सीख रहे थे। कुछ बच्चे उन कुत्तों की पूँछ पे ढेले से निशाना साधने का प्रयास कर रहे थे… बीच में कुत्तों के भौं-भौं की आवाज भी आती थी, जिसमें आक्रमण का भाव कम और दया की भीख ज्यादा थी। पूरा माहौल जीवन से भरपूर था।


कारा नेपुरा का पड़ोसी था। उसके घर के आगे हीरा-मोती जैसे दो बैल बँधे होते थे। दिवाली की रात कारा गाँजा पीके मस्त था औरा आते-जाते लोगों को दिवाली की शुभकामना अपनी टूटी-फ़ूटी गालियों से दे रहा था। उसकी मेहरारू कुम्हार से दीया माँगने गई थी। उधार माँगने पर दीया तो नहीं मिला, कुम्हार की दो-चार घुड़कियाँ ज़रूर सुननी पड़ीं। लौटकर अभी वो आँगन में बैठकर ज़िन्दगी को कोसना ही शुरु की थी कि बाहर से आवाज़ आयी- बड़ाआआम… बैल अपने खूँटे पर कुदने लगे, बकरियाँ मिमियाने लगीं… रामनिवास हाथ में माचिस लिए अँधेरे में एक-दो-तीन हो गया| फ़िर कारा ने जो गाली की बरसात शुरु की कि दिवाली के बुम-बड़ाम की आवृत्ति उसकी गगनभेदी गालियों के समक्ष कम लगने लगीं। रामनिवास जाके झट से खाट पर चादर ओढ़कर लेट गया। उसकी स्थिति उस बिल्ली की तरह थी जो चुहे को देखकर भी झपट नहीं सकती थी क्योंकि सामने ही कारा का रूप लिए एक कुत्ता मँडरा रहा था। चादर के नीचे मन यह सोचकर फ़िर भी गुदगुदा रहा था कि बैल कितना ज़ोर कुदा था…

कोई रात ऐसी नहीं बनी जिसका सहर ना हो। इस अमावस की रात का भी अंत आया। भाँग उतरने के कारण कारा थोड़ा शांत था। सुबह-सुबह रामनिवास को जगाने आया- कुश्ती खाट पर सोए सोए ही देखेगा का रे निवसवा! फ़िर जल्दी से रामनिवास उठा और चिल्लाया-चल रामसुहास, डंका बजने लगा रे… इस बार भिखारीबीघा से घिटोरन खलीफ़ा आये हैं, इलाका के पहलवानों का कच्छा गीला हो जाता है उनको देखकर… लुक भिआ!- रामसुहास आँख मलते हुए तुतलाता।


क्या नज़ारा था। गाँव के सारे लोग हाथ में लाठी लिए खड़े थे, बच्चे इधर-उधर बनियान और डोरी वाले निकर में उछल-कुद कर रहे थे। धूल धरती से आकाश तक फ़ैला हुआ था। प्रात:कालीन रक्तिम किरणें उन पर पड़कर सारे वातवरण को लाल कर रही थीं। घास पर ओस की बूँदें मोती की तरह अभी भी टंगे थे। पहले बच्चों का द्वन्द्व  शुरु हुआ। दो बच्चे आए, एक-दूसरे के गर्दन पर अखाड़े की मिट्टी लगाई और आँखों से ही एक-दूसरे को चारो खाने चित्त कर देने की कसम ली  फ़िर बड़ों की प्रतियोगिता शुरु हुई। घिटोरन पहलवान के सामने गाँव का वीर चमोकन खड़ा था। दोनों के बदन अखाड़े की धूल से धूसरित था, ललाट पर पहले दोनों ने एक-दूसरे को तिलक लगाया और अखाड़े को झुककर सादर प्रणाम किया। फ़िर मल्लयुद्ध शुरु हुआ। ज़रासंध और भीम सबकी आँखों में तैरने लगे। घिटोरन ने पलक झपकते ही एक हाथ से चमोकन की टांग को अपने कंधे पर रखकर उसे उलट ही दिया था कि चमोकन हवा में ही घिरनी की तरह नाचकर घिटोरन के नीचे आकर उलटा बैठ गया। उसके दोनों हाथों में घिटोरन पहलवान के पैर आ गये पर उन्हें उठा पाना चमोकन के वश की बात नहीं थी इसलिए उसने झट से उन पैरों को धक्का दिया और जब तक कि घिटोरन पहलवान सम्हलते, ज़मीन पर गिर चुके थे। इस तरह कभी गाड़ी पर नाव, कभी नाव पर गाड़ी हुए जा रही थी... काफ़ी समय बाद परिणाम आया- चूँकि दोनों में से कोई भी चित्त नहीं हुआ अत: दोनों को ही आज का विजेता घोषित किया जाता है।

सभी लौट रहे थे- कारा, रामनिवास, रामसुहास। कारा बता रहा था- अरे रामनिवास कल हमारी दिवाली बर्बाद हो गई यार। ना जाने किस साले को मेरे से दुश्मनी थी, मेरे बैल की एक टांग टूट गयी खूँटे पर उछलने से। रामसुहास इस बात पर खिलखिलाकर हँसने लगा तो रामनिवास ने उसे दो चपत लगाये और बोला- कितने दु:ख की बात है और तू हँसता है!

Sunday, March 4, 2012

नेपुरा-II


अरथी तैयार थी, पीताम्बरी ओढ़े तुलेशर आराम कर रहा था बाँस के बिस्तर पर, बस साँसें रुकी हुई थीं। गाँव के अमीर-गरीब -सारे कफ़न के कपड़े लाकर उस पर रख रहे थे, बगल में चार अगरबत्तियाँ जला दी गई थीं, कुछ गेन्दा के फूल भी चढ़ाये गए थे जिसके पास रखे लड्डु पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। फ़कीरा के कंधे थोड़े झुक ज़रूर गये थे पर आज भी बेटे को उठाने की ताकत उनमें थीं । फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि बचपन में मेला दिखाने के लिए ये तुलेशर को उठाते थे और आज गंगा-घाट दिखाने के लिए। अचानक से आवाज आई- राम-नाम सत्य है! श्री राम-नाम सत्य है!! चार कंधों पे विधाता की रची वह अनुपम कृति अपनी अंतिम यात्रा के प्रस्थान के लिए तैयार थी। कुछ कुत्ते गाँव के बाहर तक तुलेशर को विदाई देने गए और फ़िर लौटकर मंदिर के अहाते में शांत बैठ गए। पूरे गाँव में सन्नाटा छाया हुआ था, नेपुरा चौखट पर बैठे अब भी आसमान की तरफ़ देख रही थी, कुछ महिलाएँ उसे दिलाशा दिलाने की कोशिश कर रही थीं और बाकी अपने-अपने घरों में रोजमर्रा की ज़िन्दगी में व्यस्त हो चुकी थीं।

गंगा का किनारा था। रात में पानी पर आग की लपटें चित्र बनकर उभर रही थीं। तुलेशर अचेतन पंचतत्व में विलीन हो रहा था। फकीरा की सजल आँखें अपने पुत्र के अंतिम स्वरुप को अविराम देख रही थीं। चार कदम पर गाँव के कुछ लोग खैनी बनाने में जुटे थे और मन ही मन सोच रहे थे कि कब साला तुलेशरा जले और उन्हें कचौड़ी तोड़ने का मौका मिले पर मुख से एकदम विपरीत वाणी निकल रही थी - कितना सीधा-सादा 'अमदी' था... धरती पर अच्छा इंसान का कलियुग में कोई जगह नहीं है भाई... भगवान् को जादे जरुरत है इनका। इतना जीवंत अभिनय तो किसी महापुरुष की पुण्यतिथि पर राजनेता बगैरह भी नहीं कर पाते होंगे जितनी वास्तविकता के साथ ये खैनी बनानेवाले कर रहे थे। क्या गाँव-क्या शहर, मानवीय मूल्यों का ह्रास सब जगह भगवान समान भाव से करा रहे हैं, उन्हें भेद-भाव पसंद नहीं शायद। चंद घंटों में उस जगह पर राख का सिर्फ़ ढेर बचकर रह गया था, जिससे अब-भी थोड़ा-थोड़ा धुआँ निकल कर वायुमंडल को प्रदूषित करने की कोशिश कर रहा था। फ़कीरा तुलेशर के अवशेष को गंगा की लहरों में प्रवाहित करके एक हाथ में लाठी लिए लौट रहा था। उसके कदमों में थोड़ा ठहराव था और कंधे बिना बोझ के झुके मालूम होते थे।

छोटू इधर राम-खेलावन को पाँच पुड़ी देना...उधर सुखराम बाबू के पत्तल में आधा किलो जलेबी और गिराओ भाई...सुबह से बेचारे लाश ढो-ढोकर मर गए हैं, जिसको जाना था वो तो चला गया... उसको कौन रोक सकता है पर जो है उसको तो तृप्त करो। सब होटल में छककर खाने में जुटे थे और फ़कीरा कोने में टूटी हुई कुर्सी पर धोती में बंधे पैसों को निकालकर गिन रहा था। गाँव से आए लोगों को फ़कीरा की गरीबी और लाचारी से कोई खास लेना-देना नहीं था। आधे से अधिक इसी मनसा से आए थे कि तुलेशरा को जलाके कुंभकर्ण की तरह भोजन पर टूटेंगें। पता नहीं ये कैसी विषैली सामाजिक प्रथा थी जो चंद भूक्खड़ों की जठराग्नि की पूर्ति हेतु किसी इंसान की अंतिम यात्रा में गरीबी और इंसानियत के मुँह पर सरेआम तमाचा मारा करती थी। सब खाते रहे, ऐसे कि सहस्राब्दि से उनकी क्षुधा अतृप्त रही हो और आज फ़कीरा की जेब में स्वयं कुबेर आकर बैठ गए हों... तुलेशर भी ऊपर बैठा सोचता होगा कि किन कमीनों के बीच मैं फ़ँसा हुआ था।

तुलेशर का क्रिया-कर्म समाप्त हो चुका था। नेपुरा को खेत पेट पालने के लिए बुलाने लगे थे। अब भी वो बहुत हद तक पूर्ववत् दिखती थी, बस हाथों से चुड़ियाँ और माँग से सिन्दूर गायब थे। मुँह से गालियाँ कुछ कम हो गई थीं और चेहरे की चमक थोड़ी फ़ीकी पड़ गई थी। घर में चुल्हा जलने लगा था, तुलेशर जाते-जाते आलू की कीमत अपने साथ ले जा चुका था... अब बस चावल के दाने गर्म पानी में वहाँ उबलकर उछल रहे थे...आलू के बिना भी बच्चों का भटकना बदश्तूर ज़ारी था। फ़कीरा अकेले में यदा-कदा फ़टे हुए बनियान से अपनी आँखे पोछता रहता था, नेपुरा के पास इस चीज़ के लिए भी वक्त निकालना संभव नहीं था।

नेपुरा के सबसे बड़े बेटे का नाम था- रामनिवास। उसकी उम्र का अंदाज़ गाँव के लोग शेरु की उम्र से लगाते थे जो कि पीछे की गली में हमेशा नाली में स्नान करता हुआ पाया जानेवाला कुत्ता था और बदकिस्मती से इस महान् कुकुर का जन्मदिवस रामनिवास जैसे छोटे प्राणी के साथ मेल खाता था। कुछ लोग छेड़ने के लिए रामनिवास को शेरुआ-शेरुआ भी बुलाते थे और बदले में रामनिवास उन सबकी माँ-बहन एक करता था। बाप के गुजर जाने के बाद अल्पावस्था में ही वो राधामोहन बाबू का नन्हा खेतिहर बन गया था। कुछ समय तक 'इस्कूल' में पढ़ाई करने के बाद माँ के साथ खेत में घास काटने निकल जाना उसकी दिनचर्या सी बन गई थी। उसके बाद राधामोहन बाबू के खेत का मुआयना करने के वास्ते कंधे पे लाठी और माथे पे मुरेठा बाँधे वो निकल जाता था। मालिक, आज फिर लक्ष्मिनिया के बकरियन अपने खेत का सरसो चर रही थी... जाके उसको समझा दीजिये, एकाध दिन हम्मर लाठी चल गया त खेत में ही सब ढेर हो जाएगा। राधामोहन बाबू ऐसे वीर-बालक की बातों को सुनकर सिर्फ़ मुस्कुराते रहते थे। बेटा बाप से भी कहीं बड़ा वफ़ादार निकलता जा रहा था। रात को घर लौटते वक्त उसके अंगोछे में आठ-दस रोटी और थोड़ी सब्जी बाँध दी जाती जिसे वो घर ले जाकर अपने भाईयों को खिला देता।

नेपुरा के दिन एक बार फ़िर बदलने लगे थे। कभी कभी उसके होठों पे हँसी भी दिखने लगी थी। बरगद की टहनी पर लदे कुराफ़ाती बच्चों को वो फ़िर से डाँटने लगी थी। चुल्हे पर चावल के साथ दो-चार आलू भी चहलकदमी करते दिखने लगे थे।












Saturday, January 21, 2012

नेपुरा

जेठ का महीना। पहला पहर बीत चुका था और दिन दूसरे पहर पर कदम रखने की तैयारी में था। सूरज के भय  से हवा भी कांपने लगी थी और थोड़ी दूर पर खड़े लोग उस कम्पन की वजह से लहराते  दिख रहे  थे। गाँव के लोग या तो अपने-अपने घरों में जा छुपे थे या बरगद के पेड़ तले गमछा बिछाके गप्पें हाँक रहे थे। खेत में नेपुरा एक हाथ से माथे का पसीना पोछ रही थी और दूसरे हाथ से निकौनी कर रही थी। बगल में उसका मुँहबोला बेटा मिट्टी और उसकी डाँट एक साथ खा रहा था। मरद तुलेशर लुंगी-गंजी पहने, माथे पर फ़टे हुए गमछे से मुरेठा बाँधे बगल के खलिहान में धान पीटने में अपना पसीना कम बहा रहा था और पास रखे पीतल के लोटे से पानी ज्यादा पी रहा था। वह लोटे को कुछ इस तरह से हवा में उठाकर पानी को मुँह पे अर्पण करता था मानो शिव-लिंग को जलाभिषेक करा रहा हो। कुछ बैल कटे हुए खेत में घास के जो दो-चार निरीह पौधे इस भीषण ग़र्मी से भी बच गये थे, उन पर मुँह मार रहे थे। पास के बरगद की टहनी पर कुछ बच्चे लटक-लटककर उसे तोड़ने का उपाय लगा रहे थे। नेपुरा बीच-बीच में इन बच्चों पर भी दूर से ही चिल्ला रही थी- पढ़ना-लिखना साढ़े बाईस और दिन-भर खाली घन-चक्कर.. 'इस्कूल' ना हुआ महतोजी का दलान हुआ.. सब मास्टर खाली पैसा चुगने आते हैं यहाँ... फ़िर सरकार को दो-चार गाली... उसकी चिड़चिड़ाहट साफ़ बता रही थी कि बाहर तापमान कितना ज्यादा है! बच्चे उसकी बातों पर खिलखिला रहे थे और तुलेशर बच्चों को कनखी मारके चिढाने के लिए और चढ़ा रहा था। 

ऐसे परिवेश में राधामोहन बाबू का अनपेक्षित रिक्शा आना सुखदायक तो नहीं ही था। खैर! हाथ में सिगरेट सुलगाए, धुएँ को हवा में मुँह से उड़ाते हुए वे रिक्शा वाले को समझा रहे थे- बाबा बीड़ी-सिगरेट कम पिया करो, बुढ़ापा आ गया है, पता नहीं कब राम-नाम सत्य हो जाये! काहे बेमतलब यमराज को न्योता देते हो। इन नाहक चीजों को हाथ लगाना भी पाप समझो, तभी पोता-परपोता देख पाओगे। जवाब में रिक्शावाले के पास अपने पीले दाँतों को दिखाने के अतिरिक्त कुछ नहीं था। राधामोहन बाबू को देखते ही नेपुरा के पाँव में चरखी घुमने लगा, खाँचा खेत में ही पटककर दौड़ी-दौड़ी वहाँ पहुँच गई- मालिक रामदहिन को पहले हरा नोट चाहिए, बोलता है तभी फ़ीटर चलाएगा... खाद का दाम अलग ही पंद्रह रुपिया बढ़ गया है, पता नहीं किसान आदमी कैसे जिएगा!! ...चुटुरवा दिन भर खाली लफ़ंगागिरी करता है इधर से उधर, खेत में जाने को बोलो तो उसका 'मिजाज' जलता है... चपर-चपर उसकी जवान चले ही जा रही थी कि तभी राधामोहन बाबू ने टोका- अच्छा! सब देखते हैं, थोड़ा जूता-चप्पल खोलने का इज़ाज़त दोगी? नेपुरा थोड़ा हँसते हुए और थोड़ा झेंपते हुए मालिक के अकस्मात्  आगमन का समाचार तुलेशर को देने चली गई। तुलेशर दूर से सब देख रहा था, नेपुरा के आते ही उसने चुटकी ली- अब तक तो सारे गाँव की शिकायत मालिक तक पहुँच चुकी होगी, मेरे बारे में कुछ उल्टा-सीधा बोली या नहीं? जाओ जी! मैं मन्थ्रा नहीं, सीता हूँ सीता- समझ आएगा एक दिन तो मेरा पल्लु पकड़के रोओगे...

खेत-खलिहान का कार्यक्रम अब तक समाप्त हो चुका था। तुलेशर एक हाथ में लोटा लिए गाँव से बाहर के अहरे की तरफ लपका चला जा रहा था। कुछ घरों के आँगन से धुँआ उठ-उठकर आकाश से मिलने को निकल रहे थे। शाम गाँव को साँवले चादर में ढँक चुकी थी और कालिमा हल्की-हल्की गहराने लगी थी। नेपुरा के चुल्हे में भी उपले लाल होकर आग उगल रहे थे। एक बर्तन में करीबन आधा किलो चावल और 4-5 आलू डालकर चुल्हे पर रखा गया था। घर के सारे बच्चे एक-एक करके बार-बार भोजन की चिरकालीन प्रतीक्षा में चुल्हे के आस-पास मँडरा रहे थे। तुलेशर सबको फ़टकार रहा था- कहाँ-कहाँ से आ गए हैं, पता नहीं भगवान इतनी औलाद क्यूँ दे देता है!! दिन खेतों के हवाले है और रात इन बनच्चरों के... सब के सब साले गणेश जी का ही पेट लेकर पैदा हुए हैं...रात को चार 'थारी' खाना है और सुबह लोटा लेके खेत में पहुँच जाना है...'इस्कूल' जाने को कहो तो गर्मी में 'जड़इया' बुखार चढ़ता है...हमारी ही किस्मत में सारे करमजले लिखे थे- उसके गुस्से में उसकी गरीबी और लाचारी पानी की तरह साफ़ दिखाई दे रही थी। एक पेट के लिए पैसे नहीं थे पर पति-पत्नी मेहनत कर-करके आठ-आठ पेट पाल रहे थे। थोड़ी राधामोहन बाबू की मेहरबानी थी और थोड़ी उन गायों की, जिनके दूध से घर में दो-पैसे आ जाते थे और दोनों शाम चुल्हा जल जाता था।

तुलेशर और नेपुरा के चार सुपाटर थे। दो बेटा- रामनिवास और रामसुहास, दो बेटियाँ-सीमा और रेखा। बड़ा बेटा रामनिवास अभी उतना बड़ा नहीं हुआ था और छोटा वाला तो अभी गुड्कना ही सीख रहा था। सीमा गाय का गोबर भी काढ़ती थी और पास के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने भी जाती थी। रेखा इतनी ही सयानी हो पायी  थी कि गोबर काढ़ने के बजाय उसके साथ खेल सके। चारों की धमाचौकड़ी घर को घर नहीं रहने देती थी। रामसुहास एक कोने में शान्ति से मिट्टी खाता, रामनिवास जैसे ही देखता उसके छोटे गालों पर दो थप्पड़ रसीद कर देता-खबरदार जो मिट्टी को हाथ लगाया, फुन्नु काट दूँगा। रामसुहास फिर ऐसे चिल्लाके रोता कि रामनिवास को तत्कालीन घर छोड़के भागना ही नीतिसंगत जान पड़ता। सीमा और रेखा मलिया में सरसों का तेल लेके फुटे हुए आइने से उन्हें हमेशा सँवारते होते। सीमा बीच-बीच में रेखा को छेड़ती- रेखवा तो करिया है, मइया की नहीं ये तो लछमिनिया दीदी की बकरिया की बेटी है। रेखा प्रतिवाद करती-ना मइया की ही बेटी है, बकरी की बेटी तो बकरी ही होती है… हम तो अमदी हैं फिर सीमा हँस पड़ती। नेपुरा भी दूर से चिल्लाती- रेखवा मइया की ही बेटी है और मइया उसको सबसे ज्यादा प्यार करती है।

सूरज अब रहम-दिल होने लगा था। गर्मी कम होने के कारण तुलेशर एक दिन दोपहर में ही हँसुआ लेके घास काटने निकल गया। अभी आधी मौनी (बाँस का बना बर्तन) घास भी नहीं कटी थी कि उसके उपर का आसमान उसे घुमता हुआ दिखने लगा और दो पल बाद ही वो घुमता आसमान भी दिखना बंद हो गया। लोग उसे खाट पर लेटाकर, कंधे पर लिए दौड़े-दौड़े जंजालपुर के डाक्टर-साहब के पास ले गए। अरे, काहे को हाथी की तरह भाँय-भाँय करके चिग्घाड़ रही हो, मर नहीं गया है तोर मरद। चलो पैसे निकालो- सुदर्शन (डाक्टर का सहायक) थोड़ा डाँटते हुए और थोड़ा रोब जमाते हुए बोला। नेपुरा ने आँचल में बँधे बीस रुपये के एक मैले नोट को निकालकर उसके हाथ पर रखा ही था कि सुदर्शन उबल पड़ा- इतना तो डाक्टर-साहेब का 'फ़ीस' हुआ, हमरा चढ़ाबा कौन देगा?... साहेब दवा-दारु के लिए भी तो पैसे चाहिए, गरीब 'अमदी' को क्यूँ चूसते हो...चलो फ़िर खाट उठाओ, खैरात नहीं खुला यहाँ पे, इस इलाके में कोई भी कुबेर का बेटा पैदा नहीं हुआ है कि हम उसी से से सिर्फ़ माल बटोरें...और फ़िर घोड़ा घास से ही दोस्ती कर लेगा तो खायेगा क्या, घंटा! सुदर्शन बके जा रहा था और तुलेशर उधर ही खाट पर कराह रहा था। बेईमानी और रिश्वतखोरी पर इस देश में किसी खास तबके का अकेला अख्तियार नहीं- यह हर जगह समान रूप से हर वर्ग में विद्यमान है। यहां पैसे के लिए इंसानियत को बेच देना काफ़ी सस्ता सौदा है। अन्ततोगत्वा सुदर्शन को दो के नोट थमाये गए तब जाकर डाक्टर साहब तक तुलेशर की खाट पहुँची। उसे कुछ दवायें दी गईं और अकेले में राधामोहन बाबू को बताया गया कि तुलेशर अब चंद दिन का ही मेहमान है। राधामोहन बाबू को काटो तो खून नहीं। वो नहीं चाहते थे कि ये बात नेपुरा के कानों तक पहुँचे और उसकी सारी आशाओं को शीशे की तरह चकनाचूर कर दे इसलिए न तो ये बात वो किसी को बता सकते थे और न ही इस घुटन को किसी के साथ बाँट सकते थे, बस आनेवाली मौत के लिए मूकदर्शक बने रहना उनकी नियती बन गई थी।


बच्चे अब भी चुल्हे के पास चक्कर काट रहे थे, आलू और चावल पहले की तरह ही अलाव पर पक रहे थे। बस तुलेशर का चिल्लाना रुक चुका था, सुबह-शाम दवा खाता था और खाट पर बिछे मैले बिस्तर पर लेटा रहता था। नेपुरा आधे समय उसका पैर दबाते हुए जमीन पर बैठी रहती थी और आधे समय परिवार का पेट पालने के लिए आँखों में आँसू लिए खेतों में काम किया करती थी। दिन-प्रतिदिन तुलेशर का शरीर पीला पड़ता जा रहा था। नेपुरा रोज दौड़-दौड़ के मालिक के पास जाती और राधामोहन बाबू रोज उसे यही दिलाशा देकर भेजते कि ऐसे रोग में कभी कभी देह पीला पड़ जाता है... तुलेशर आठ-दस दिन में फ़िर से जब खलिहान में सुखमतिया को तिरछी नज़र से देखेगा तो सोचोगी कि बिस्तर पर ही यह मुँहझौंसा पड़ा हुआ था तो ठीक था। फ़िर नेपुरा आँसू पोछकर मुस्कुराते हुए चली जाती पर ये झूठी आशा, झूठी हँसी, झूठी सांत्वना- सब काफ़ी क्षणभंगुर साबित हुईं। तुलेशर एक रात जो सोया तो उठा ही नहीं... शरीर ठंढा होकर साफ़ बता रहा था कि उसे ज़िंदगी का ये रंगमंच रास नहीं आया इसलिए उसने असमय ही पर्दा गिरा लिया...नेपुरा की अथक सेवा की उसे अब कोई आवश्यकता नहीं...ना ही उसे उन बच्चों के पेट की कोई चिंता...

केले का थम जैसा गठीला शरीर पीला और थोड़ा काला पड़कर अरहर के सुखे डंडे जैसा हो गया था... सारा गाँव नेपुरा की छोटी सी कुटिया में जमा था... राधामोहन बाबू की आँखों में जो आँसू थे वे ज्यादा दुख और थोड़ा पश्चाताप से बुनकर बने थे सब यही सोच रहे थे कि कल तक यही तुलेशर चार बैलों से अकेला चार बीघा जोत आता था और आज वही चार बैल अगर उसके शरीर पर भी चढ़ जाएँ तो वो उँह तक ना करे। मृत्यु कितनी ही काली होती है आज इसका आभास हो रहा था। सुखे बाल, जिनमें कई दिनों से तेल नहीं पड़ने के कारण जटा-सी निकल आयी थी, उसको एक बच्चा सुलझाने में लगा था... दूसरा बाबूजी-बाबूजी कहते हुए झकझोरकर तुलेशर को, उसकी कभी ना खत्म होनेवाली नींद से जगाने की असफ़ल कोशिश कर रहा था... तुलेशर की माँ बगल में छाती पीट रही थी, नेपुरा जड़ बैठी थी, उसके आँसूओं का समंदर शैलाब बनकर उमड़ नहीं रहे थे- शायद आज उस समंदर का सारा पानी सुख गया था।वो अपलक आसमान को देख रही थी जैसे यमराज से बेहिचक तुलेशर को माँग रही हो।