Saturday, January 21, 2012

नेपुरा

जेठ का महीना। पहला पहर बीत चुका था और दिन दूसरे पहर पर कदम रखने की तैयारी में था। सूरज के भय  से हवा भी कांपने लगी थी और थोड़ी दूर पर खड़े लोग उस कम्पन की वजह से लहराते  दिख रहे  थे। गाँव के लोग या तो अपने-अपने घरों में जा छुपे थे या बरगद के पेड़ तले गमछा बिछाके गप्पें हाँक रहे थे। खेत में नेपुरा एक हाथ से माथे का पसीना पोछ रही थी और दूसरे हाथ से निकौनी कर रही थी। बगल में उसका मुँहबोला बेटा मिट्टी और उसकी डाँट एक साथ खा रहा था। मरद तुलेशर लुंगी-गंजी पहने, माथे पर फ़टे हुए गमछे से मुरेठा बाँधे बगल के खलिहान में धान पीटने में अपना पसीना कम बहा रहा था और पास रखे पीतल के लोटे से पानी ज्यादा पी रहा था। वह लोटे को कुछ इस तरह से हवा में उठाकर पानी को मुँह पे अर्पण करता था मानो शिव-लिंग को जलाभिषेक करा रहा हो। कुछ बैल कटे हुए खेत में घास के जो दो-चार निरीह पौधे इस भीषण ग़र्मी से भी बच गये थे, उन पर मुँह मार रहे थे। पास के बरगद की टहनी पर कुछ बच्चे लटक-लटककर उसे तोड़ने का उपाय लगा रहे थे। नेपुरा बीच-बीच में इन बच्चों पर भी दूर से ही चिल्ला रही थी- पढ़ना-लिखना साढ़े बाईस और दिन-भर खाली घन-चक्कर.. 'इस्कूल' ना हुआ महतोजी का दलान हुआ.. सब मास्टर खाली पैसा चुगने आते हैं यहाँ... फ़िर सरकार को दो-चार गाली... उसकी चिड़चिड़ाहट साफ़ बता रही थी कि बाहर तापमान कितना ज्यादा है! बच्चे उसकी बातों पर खिलखिला रहे थे और तुलेशर बच्चों को कनखी मारके चिढाने के लिए और चढ़ा रहा था। 

ऐसे परिवेश में राधामोहन बाबू का अनपेक्षित रिक्शा आना सुखदायक तो नहीं ही था। खैर! हाथ में सिगरेट सुलगाए, धुएँ को हवा में मुँह से उड़ाते हुए वे रिक्शा वाले को समझा रहे थे- बाबा बीड़ी-सिगरेट कम पिया करो, बुढ़ापा आ गया है, पता नहीं कब राम-नाम सत्य हो जाये! काहे बेमतलब यमराज को न्योता देते हो। इन नाहक चीजों को हाथ लगाना भी पाप समझो, तभी पोता-परपोता देख पाओगे। जवाब में रिक्शावाले के पास अपने पीले दाँतों को दिखाने के अतिरिक्त कुछ नहीं था। राधामोहन बाबू को देखते ही नेपुरा के पाँव में चरखी घुमने लगा, खाँचा खेत में ही पटककर दौड़ी-दौड़ी वहाँ पहुँच गई- मालिक रामदहिन को पहले हरा नोट चाहिए, बोलता है तभी फ़ीटर चलाएगा... खाद का दाम अलग ही पंद्रह रुपिया बढ़ गया है, पता नहीं किसान आदमी कैसे जिएगा!! ...चुटुरवा दिन भर खाली लफ़ंगागिरी करता है इधर से उधर, खेत में जाने को बोलो तो उसका 'मिजाज' जलता है... चपर-चपर उसकी जवान चले ही जा रही थी कि तभी राधामोहन बाबू ने टोका- अच्छा! सब देखते हैं, थोड़ा जूता-चप्पल खोलने का इज़ाज़त दोगी? नेपुरा थोड़ा हँसते हुए और थोड़ा झेंपते हुए मालिक के अकस्मात्  आगमन का समाचार तुलेशर को देने चली गई। तुलेशर दूर से सब देख रहा था, नेपुरा के आते ही उसने चुटकी ली- अब तक तो सारे गाँव की शिकायत मालिक तक पहुँच चुकी होगी, मेरे बारे में कुछ उल्टा-सीधा बोली या नहीं? जाओ जी! मैं मन्थ्रा नहीं, सीता हूँ सीता- समझ आएगा एक दिन तो मेरा पल्लु पकड़के रोओगे...

खेत-खलिहान का कार्यक्रम अब तक समाप्त हो चुका था। तुलेशर एक हाथ में लोटा लिए गाँव से बाहर के अहरे की तरफ लपका चला जा रहा था। कुछ घरों के आँगन से धुँआ उठ-उठकर आकाश से मिलने को निकल रहे थे। शाम गाँव को साँवले चादर में ढँक चुकी थी और कालिमा हल्की-हल्की गहराने लगी थी। नेपुरा के चुल्हे में भी उपले लाल होकर आग उगल रहे थे। एक बर्तन में करीबन आधा किलो चावल और 4-5 आलू डालकर चुल्हे पर रखा गया था। घर के सारे बच्चे एक-एक करके बार-बार भोजन की चिरकालीन प्रतीक्षा में चुल्हे के आस-पास मँडरा रहे थे। तुलेशर सबको फ़टकार रहा था- कहाँ-कहाँ से आ गए हैं, पता नहीं भगवान इतनी औलाद क्यूँ दे देता है!! दिन खेतों के हवाले है और रात इन बनच्चरों के... सब के सब साले गणेश जी का ही पेट लेकर पैदा हुए हैं...रात को चार 'थारी' खाना है और सुबह लोटा लेके खेत में पहुँच जाना है...'इस्कूल' जाने को कहो तो गर्मी में 'जड़इया' बुखार चढ़ता है...हमारी ही किस्मत में सारे करमजले लिखे थे- उसके गुस्से में उसकी गरीबी और लाचारी पानी की तरह साफ़ दिखाई दे रही थी। एक पेट के लिए पैसे नहीं थे पर पति-पत्नी मेहनत कर-करके आठ-आठ पेट पाल रहे थे। थोड़ी राधामोहन बाबू की मेहरबानी थी और थोड़ी उन गायों की, जिनके दूध से घर में दो-पैसे आ जाते थे और दोनों शाम चुल्हा जल जाता था।

तुलेशर और नेपुरा के चार सुपाटर थे। दो बेटा- रामनिवास और रामसुहास, दो बेटियाँ-सीमा और रेखा। बड़ा बेटा रामनिवास अभी उतना बड़ा नहीं हुआ था और छोटा वाला तो अभी गुड्कना ही सीख रहा था। सीमा गाय का गोबर भी काढ़ती थी और पास के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने भी जाती थी। रेखा इतनी ही सयानी हो पायी  थी कि गोबर काढ़ने के बजाय उसके साथ खेल सके। चारों की धमाचौकड़ी घर को घर नहीं रहने देती थी। रामसुहास एक कोने में शान्ति से मिट्टी खाता, रामनिवास जैसे ही देखता उसके छोटे गालों पर दो थप्पड़ रसीद कर देता-खबरदार जो मिट्टी को हाथ लगाया, फुन्नु काट दूँगा। रामसुहास फिर ऐसे चिल्लाके रोता कि रामनिवास को तत्कालीन घर छोड़के भागना ही नीतिसंगत जान पड़ता। सीमा और रेखा मलिया में सरसों का तेल लेके फुटे हुए आइने से उन्हें हमेशा सँवारते होते। सीमा बीच-बीच में रेखा को छेड़ती- रेखवा तो करिया है, मइया की नहीं ये तो लछमिनिया दीदी की बकरिया की बेटी है। रेखा प्रतिवाद करती-ना मइया की ही बेटी है, बकरी की बेटी तो बकरी ही होती है… हम तो अमदी हैं फिर सीमा हँस पड़ती। नेपुरा भी दूर से चिल्लाती- रेखवा मइया की ही बेटी है और मइया उसको सबसे ज्यादा प्यार करती है।

सूरज अब रहम-दिल होने लगा था। गर्मी कम होने के कारण तुलेशर एक दिन दोपहर में ही हँसुआ लेके घास काटने निकल गया। अभी आधी मौनी (बाँस का बना बर्तन) घास भी नहीं कटी थी कि उसके उपर का आसमान उसे घुमता हुआ दिखने लगा और दो पल बाद ही वो घुमता आसमान भी दिखना बंद हो गया। लोग उसे खाट पर लेटाकर, कंधे पर लिए दौड़े-दौड़े जंजालपुर के डाक्टर-साहब के पास ले गए। अरे, काहे को हाथी की तरह भाँय-भाँय करके चिग्घाड़ रही हो, मर नहीं गया है तोर मरद। चलो पैसे निकालो- सुदर्शन (डाक्टर का सहायक) थोड़ा डाँटते हुए और थोड़ा रोब जमाते हुए बोला। नेपुरा ने आँचल में बँधे बीस रुपये के एक मैले नोट को निकालकर उसके हाथ पर रखा ही था कि सुदर्शन उबल पड़ा- इतना तो डाक्टर-साहेब का 'फ़ीस' हुआ, हमरा चढ़ाबा कौन देगा?... साहेब दवा-दारु के लिए भी तो पैसे चाहिए, गरीब 'अमदी' को क्यूँ चूसते हो...चलो फ़िर खाट उठाओ, खैरात नहीं खुला यहाँ पे, इस इलाके में कोई भी कुबेर का बेटा पैदा नहीं हुआ है कि हम उसी से से सिर्फ़ माल बटोरें...और फ़िर घोड़ा घास से ही दोस्ती कर लेगा तो खायेगा क्या, घंटा! सुदर्शन बके जा रहा था और तुलेशर उधर ही खाट पर कराह रहा था। बेईमानी और रिश्वतखोरी पर इस देश में किसी खास तबके का अकेला अख्तियार नहीं- यह हर जगह समान रूप से हर वर्ग में विद्यमान है। यहां पैसे के लिए इंसानियत को बेच देना काफ़ी सस्ता सौदा है। अन्ततोगत्वा सुदर्शन को दो के नोट थमाये गए तब जाकर डाक्टर साहब तक तुलेशर की खाट पहुँची। उसे कुछ दवायें दी गईं और अकेले में राधामोहन बाबू को बताया गया कि तुलेशर अब चंद दिन का ही मेहमान है। राधामोहन बाबू को काटो तो खून नहीं। वो नहीं चाहते थे कि ये बात नेपुरा के कानों तक पहुँचे और उसकी सारी आशाओं को शीशे की तरह चकनाचूर कर दे इसलिए न तो ये बात वो किसी को बता सकते थे और न ही इस घुटन को किसी के साथ बाँट सकते थे, बस आनेवाली मौत के लिए मूकदर्शक बने रहना उनकी नियती बन गई थी।


बच्चे अब भी चुल्हे के पास चक्कर काट रहे थे, आलू और चावल पहले की तरह ही अलाव पर पक रहे थे। बस तुलेशर का चिल्लाना रुक चुका था, सुबह-शाम दवा खाता था और खाट पर बिछे मैले बिस्तर पर लेटा रहता था। नेपुरा आधे समय उसका पैर दबाते हुए जमीन पर बैठी रहती थी और आधे समय परिवार का पेट पालने के लिए आँखों में आँसू लिए खेतों में काम किया करती थी। दिन-प्रतिदिन तुलेशर का शरीर पीला पड़ता जा रहा था। नेपुरा रोज दौड़-दौड़ के मालिक के पास जाती और राधामोहन बाबू रोज उसे यही दिलाशा देकर भेजते कि ऐसे रोग में कभी कभी देह पीला पड़ जाता है... तुलेशर आठ-दस दिन में फ़िर से जब खलिहान में सुखमतिया को तिरछी नज़र से देखेगा तो सोचोगी कि बिस्तर पर ही यह मुँहझौंसा पड़ा हुआ था तो ठीक था। फ़िर नेपुरा आँसू पोछकर मुस्कुराते हुए चली जाती पर ये झूठी आशा, झूठी हँसी, झूठी सांत्वना- सब काफ़ी क्षणभंगुर साबित हुईं। तुलेशर एक रात जो सोया तो उठा ही नहीं... शरीर ठंढा होकर साफ़ बता रहा था कि उसे ज़िंदगी का ये रंगमंच रास नहीं आया इसलिए उसने असमय ही पर्दा गिरा लिया...नेपुरा की अथक सेवा की उसे अब कोई आवश्यकता नहीं...ना ही उसे उन बच्चों के पेट की कोई चिंता...

केले का थम जैसा गठीला शरीर पीला और थोड़ा काला पड़कर अरहर के सुखे डंडे जैसा हो गया था... सारा गाँव नेपुरा की छोटी सी कुटिया में जमा था... राधामोहन बाबू की आँखों में जो आँसू थे वे ज्यादा दुख और थोड़ा पश्चाताप से बुनकर बने थे सब यही सोच रहे थे कि कल तक यही तुलेशर चार बैलों से अकेला चार बीघा जोत आता था और आज वही चार बैल अगर उसके शरीर पर भी चढ़ जाएँ तो वो उँह तक ना करे। मृत्यु कितनी ही काली होती है आज इसका आभास हो रहा था। सुखे बाल, जिनमें कई दिनों से तेल नहीं पड़ने के कारण जटा-सी निकल आयी थी, उसको एक बच्चा सुलझाने में लगा था... दूसरा बाबूजी-बाबूजी कहते हुए झकझोरकर तुलेशर को, उसकी कभी ना खत्म होनेवाली नींद से जगाने की असफ़ल कोशिश कर रहा था... तुलेशर की माँ बगल में छाती पीट रही थी, नेपुरा जड़ बैठी थी, उसके आँसूओं का समंदर शैलाब बनकर उमड़ नहीं रहे थे- शायद आज उस समंदर का सारा पानी सुख गया था।वो अपलक आसमान को देख रही थी जैसे यमराज से बेहिचक तुलेशर को माँग रही हो।




11 comments:

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  2. Bhai kya baat hai ...
    Bahut badhiya likhe ho...
    Shabdon ke saath Jo aanchalik kahani ka chitra unhara hai
    Wo prashansneeya hai ...
    Aaj ki sthiti par vyangya ka tamacha bhi purjor hai
    Bahut Maulik hain tumhare Bhav aur apni lekhnai
    Se Kai shbadon ko jinda rakha hai ....

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  3. Thanks Brajesh bhai :) You always read my blog .. Its indeed a great pleasure for me !!

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  4. Bahot hi accha likha hian ..
    waiting for the next chapter ...
    it keeps reader busy with the description.. it seems that u can see nepura right here in front of your eyes .. waiting for second post...

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  5. Thanks Neelam :) Will try as per your suggestion..

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  6. Achha Prayash hai... Aise hi likhte rho...

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  7. बहुत ही अच्छा लगा !!
    जैसे लगा की की एक सजीव चित्र आँखों के सामने से गुजर गया ।
    Really very good :)

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