अरथी तैयार थी, पीताम्बरी ओढ़े तुलेशर आराम कर रहा था बाँस के बिस्तर पर, बस साँसें रुकी हुई थीं। गाँव के अमीर-गरीब -सारे कफ़न के कपड़े लाकर उस पर रख रहे थे, बगल में चार अगरबत्तियाँ जला दी गई थीं, कुछ गेन्दा के फूल भी चढ़ाये गए थे जिसके पास रखे लड्डु पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। फ़कीरा के कंधे थोड़े झुक ज़रूर गये थे पर आज भी बेटे को उठाने की ताकत उनमें थीं । फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि बचपन में मेला दिखाने के लिए ये तुलेशर को उठाते थे और आज गंगा-घाट दिखाने के लिए। अचानक से आवाज आई- राम-नाम सत्य है! श्री राम-नाम सत्य है!! चार कंधों पे विधाता की रची वह अनुपम कृति अपनी अंतिम यात्रा के प्रस्थान के लिए तैयार थी। कुछ कुत्ते गाँव के बाहर तक तुलेशर को विदाई देने गए और फ़िर लौटकर मंदिर के अहाते में शांत बैठ गए। पूरे गाँव में सन्नाटा छाया हुआ था, नेपुरा चौखट पर बैठे अब भी आसमान की तरफ़ देख रही थी, कुछ महिलाएँ उसे दिलाशा दिलाने की कोशिश कर रही थीं और बाकी अपने-अपने घरों में रोजमर्रा की ज़िन्दगी में व्यस्त हो चुकी थीं।
गंगा का किनारा था। रात में पानी पर आग की लपटें चित्र बनकर उभर रही थीं। तुलेशर अचेतन पंचतत्व में विलीन हो रहा था। फकीरा की सजल आँखें अपने पुत्र के अंतिम स्वरुप को अविराम देख रही थीं। चार कदम पर गाँव के कुछ लोग खैनी बनाने में जुटे थे और मन ही मन सोच रहे थे कि कब साला तुलेशरा जले और उन्हें कचौड़ी तोड़ने का मौका मिले पर मुख से एकदम विपरीत वाणी निकल रही थी - कितना सीधा-सादा 'अमदी' था... धरती पर अच्छा इंसान का कलियुग में कोई जगह नहीं है भाई... भगवान् को जादे जरुरत है इनका। इतना जीवंत अभिनय तो किसी महापुरुष की पुण्यतिथि पर राजनेता बगैरह भी नहीं कर पाते होंगे जितनी वास्तविकता के साथ ये खैनी बनानेवाले कर रहे थे। क्या गाँव-क्या शहर, मानवीय मूल्यों का ह्रास सब जगह भगवान समान भाव से करा रहे हैं, उन्हें भेद-भाव पसंद नहीं शायद। चंद घंटों में उस जगह पर राख का सिर्फ़ ढेर बचकर रह गया था, जिससे अब-भी थोड़ा-थोड़ा धुआँ निकल कर वायुमंडल को प्रदूषित करने की कोशिश कर रहा था। फ़कीरा तुलेशर के अवशेष को गंगा की लहरों में प्रवाहित करके एक हाथ में लाठी लिए लौट रहा था। उसके कदमों में थोड़ा ठहराव था और कंधे बिना बोझ के झुके मालूम होते थे।
छोटू इधर राम-खेलावन को पाँच पुड़ी देना...उधर सुखराम बाबू के पत्तल में आधा किलो जलेबी और गिराओ भाई...सुबह से बेचारे लाश ढो-ढोकर मर गए हैं, जिसको जाना था वो तो चला गया... उसको कौन रोक सकता है पर जो है उसको तो तृप्त करो। सब होटल में छककर खाने में जुटे थे और फ़कीरा कोने में टूटी हुई कुर्सी पर धोती में बंधे पैसों को निकालकर गिन रहा था। गाँव से आए लोगों को फ़कीरा की गरीबी और लाचारी से कोई खास लेना-देना नहीं था। आधे से अधिक इसी मनसा से आए थे कि तुलेशरा को जलाके कुंभकर्ण की तरह भोजन पर टूटेंगें। पता नहीं ये कैसी विषैली सामाजिक प्रथा थी जो चंद भूक्खड़ों की जठराग्नि की पूर्ति हेतु किसी इंसान की अंतिम यात्रा में गरीबी और इंसानियत के मुँह पर सरेआम तमाचा मारा करती थी। सब खाते रहे, ऐसे कि सहस्राब्दि से उनकी क्षुधा अतृप्त रही हो और आज फ़कीरा की जेब में स्वयं कुबेर आकर बैठ गए हों... तुलेशर भी ऊपर बैठा सोचता होगा कि किन कमीनों के बीच मैं फ़ँसा हुआ था।
तुलेशर का क्रिया-कर्म समाप्त हो चुका था। नेपुरा को खेत पेट पालने के लिए बुलाने लगे थे। अब भी वो बहुत हद तक पूर्ववत् दिखती थी, बस हाथों से चुड़ियाँ और माँग से सिन्दूर गायब थे। मुँह से गालियाँ कुछ कम हो गई थीं और चेहरे की चमक थोड़ी फ़ीकी पड़ गई थी। घर में चुल्हा जलने लगा था, तुलेशर जाते-जाते आलू की कीमत अपने साथ ले जा चुका था... अब बस चावल के दाने गर्म पानी में वहाँ उबलकर उछल रहे थे...आलू के बिना भी बच्चों का भटकना बदश्तूर ज़ारी था। फ़कीरा अकेले में यदा-कदा फ़टे हुए बनियान से अपनी आँखे पोछता रहता था, नेपुरा के पास इस चीज़ के लिए भी वक्त निकालना संभव नहीं था।
नेपुरा के सबसे बड़े बेटे का नाम था- रामनिवास। उसकी उम्र का अंदाज़ गाँव के लोग शेरु की उम्र से लगाते थे जो कि पीछे की गली में हमेशा नाली में स्नान करता हुआ पाया जानेवाला कुत्ता था और बदकिस्मती से इस महान् कुकुर का जन्मदिवस रामनिवास जैसे छोटे प्राणी के साथ मेल खाता था। कुछ लोग छेड़ने के लिए रामनिवास को शेरुआ-शेरुआ भी बुलाते थे और बदले में रामनिवास उन सबकी माँ-बहन एक करता था। बाप के गुजर जाने के बाद अल्पावस्था में ही वो राधामोहन बाबू का नन्हा खेतिहर बन गया था। कुछ समय तक 'इस्कूल' में पढ़ाई करने के बाद माँ के साथ खेत में घास काटने निकल जाना उसकी दिनचर्या सी बन गई थी। उसके बाद राधामोहन बाबू के खेत का मुआयना करने के वास्ते कंधे पे लाठी और माथे पे मुरेठा बाँधे वो निकल जाता था। मालिक, आज फिर लक्ष्मिनिया के बकरियन अपने खेत का सरसो चर रही थी... जाके उसको समझा दीजिये, एकाध दिन हम्मर लाठी चल गया त खेत में ही सब ढेर हो जाएगा। राधामोहन बाबू ऐसे वीर-बालक की बातों को सुनकर सिर्फ़ मुस्कुराते रहते थे। बेटा बाप से भी कहीं बड़ा वफ़ादार निकलता जा रहा था। रात को घर लौटते वक्त उसके अंगोछे में आठ-दस रोटी और थोड़ी सब्जी बाँध दी जाती जिसे वो घर ले जाकर अपने भाईयों को खिला देता।
नेपुरा के दिन एक बार फ़िर बदलने लगे थे। कभी कभी उसके होठों पे हँसी भी दिखने लगी थी। बरगद की टहनी पर लदे कुराफ़ाती बच्चों को वो फ़िर से डाँटने लगी थी। चुल्हे पर चावल के साथ दो-चार आलू भी चहलकदमी करते दिखने लगे थे।
next part kab aane wala hai? mujhe dar hai ki kahin yahi khatam na ho jaye kahani..
ReplyDeleteeagerly waiting for the next part
thanks! naa naa... ise ab novel ka form dene ke plan mein hun main.. dekho.. kitna ho paata hai..
ReplyDeleteVery nice story...please publish next part ASAP...
ReplyDeleteभाई मजा आ गया पढ़ कर। सादगी में भी आकर्षण है।
ReplyDeleteYe achha hai....achha lga pdh ke...
ReplyDeleteAise hi likhte rho...