Thursday, March 29, 2012

नेपुरा-III

पूस की रात। हल्कु चौधरी की जगह रामनिवास खेत पर बैठा था हाथ में लाठी लिए और खादी का कम्बल ओढ़े। पानी से भरा लोटा बगल में रखा था। वह बैठे-बैठे आसमान के सितारों में सप्तर्षि को ढूंढता हुआ नित्य क्रिया से निवृत्त होने में इस कदर लीन था मानो जन्म-जन्मान्तर से उसमें धरती माता को प्रसाद देने की जो स्पृहा पनप रही थी वो आज पूरी हो रही हो। खड़ा होकर जब उसने धोती झाडी तो आस-पास के मेढकों ने अपना टर्रटर्राना बंद करके नतमस्तक होकर उसका अभिवादन किया। चेहरे पर चरम संतोष लिए रामनिवास फिर गाँव की तरफ चल पड़ा। रास्ते में रामदहिन को देखकर पूछा- क्या रामदहिन बाबू! आजकल फीटर से पानी कम पटाते हैं और लाचार किसान के शरीर का पानी ज्यादा चूसते हैं! मकान दो-मंजिला से ती-मंजिला ठोका गया है... ऊपर भी कुछ पइसा  लेके जाइएगा का? रामदहिन उबल पड़ता- साला-चार दिन का छोकरा, जवान तो देखो कैंची से भी तेज चल रहा  है...शेरुआ का क्या हाल है रे? शेरुआ का नाम सुनते ही रामनिवास के रक्त में ज्वार फूट पड़ता- मालिक भगवान् का शुक्र मनाओ कि ऊँची जाति में पैदा हुए हो नहीं तो आज ये लाठी लाल रंग में नहाकर ही घर पहुंचती...जा-जा तोरा जईसन के रे रामनिवसवा तो हम काँख में दबाके-भोरे साँझे मूतते हैं। अच्छा मालिक टाइमे बताएगा जब हम्मर चक्कर में पड़ेंगे त...

सुबह चतुर्दिक कोहरा छाया हुआ था। धरती जैसे अपनी प्यास बुझाने के लिये बादल से एकाकार हो गई थी। कोई भी जीव-जन्तु अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं थे, हर तरफ जड़ता आ गई थी पर धरती को कोहरे की चादर में लिपटे हुए देखनेकी मनसा से अथवा सुबह-सुबह लक्ष्मिनिया की बकरियों को बाहर जाते देखकर एक आकृति जूट का बोरा ओढ़े अनवरत गतिशील थी| उसके हाथों में बाँस की एक छड़ी लचक रही थी। कुछ ही पलों में वह जादुई छड़ी कोहरे को चीरते हुए तरकश से निकले बाणों की तरह उन निरीह बकरियों पर बरस रही थी और उनके पास मिमियाने के अलावा कुछ चारा न बचा था।कोहरा उनके लिए वरदान सिद्ध हो रही थी इधर-उधर भागने में।

जब सूरज की किरणें कोहरे को भेदती हुई धरती को सुनहले रंग में रंग रही थीं तब लक्ष्मिनिया की सुंदर गालियों से सुसज्जित कर्कश आवाज सबके कानों तक अनायास ही पहुँचने लगी। मार डाला... कमीना पर पहले से ही शक था कि इसकी नज़र में खोट है... अपनी गाय को तो सोना खिलाता है... ये थोड़ी सी घास क्या इसके मालिक की चर गई इसका करेजा ही जल गया...कल तक पाजामा में नाड़ा नहीं डाल पाता था... आज लाठी हाँक रहा है... रामनिवास तमतमाया- देख गे लक्ष्मी दीदी, बड़ी दिन से खून पी-पी के हम देख रहे थे... लगा अब तु सुधरेगी,अब सुधरेगी...पर बेगार का चस्का कहाँ बिना लात के छुटता है... आज कसर पूरा हो गया।

जब राधामोहन बाबू ने बीचबचाव किया तब जाके मामला थोड़ा शांत हुआ। लक्ष्मिनिया बकरियों को हाँकती हुई और मुँह से रामनिवास को आशीर्वाद देती हुई अपने घर के पथ पर अग्रसर थी। रामनिवास राधामोहन बाबू के बरामदे पर लाठी पटक रहा था।

रामनिवास का छोटा भाई था- रामसुहास। उसके मिट्टी खाने के दिन अब चले गए थे और गुड़ चुराना उसे अब ज्यादा भाने लगा था। नेपुरा जब किसी उपवास के बाद गुड़ का बर्तन टटोलने भंडार घर में गई तो एक-दो आवागमन करती चीटियों के अतिरिक्त उसे कुछ हाथ नहीं लगा। माज़रा साफ़ था नेपुरा के सामने। रामसुहास के कान नेपुरा के हाथ में कुछ ही समय पश्चात मसले जा रहे थे। रामसुहास चिल्ला रहा था- अब ना मइया! माँ का यह नया स्वरुप जो उसे आज दिखा था कुछ अच्छा नहीं था। गुड़ क्या इतना महत्त्वपूर्ण हो सकता है कि उसके लिए रामसुहास को पीटा जाए। पर उसे इस बात का एहसास नहीं था कि गुड़ की महत्ता तब और बढ़ जाती है जब उसके अतिरिक्त कुछ भी खाया नहीं जा सकता और ऐसे भी भूख जब अपने चरम पर हो तो सब समान व्यवहार करती हैं- नेपुरा या लक्ष्मिनिया ।

अतीत के गर्द समय की बारिस को सोखकर मिट्टी बनने लगे थे। फ़कीरा नीम के पेड़ तले गमछा बिछाकर बैठा रहता था, गाँव के और लोग भी वहाँ आकर कौड़ी खेला करते थे, कहकहों का दौर चल पड़ा था। नेपुरा थाली में खाना लेके फ़कीरा को वहीं खिला आती थी। बगल के ‘इस्कूल’ में बच्चे चिल्ला रहे थे- दो दुनी चार… दो तिहाई छ:… पास बैठे कुत्ते कौड़ी खेलना और गणित – दोनो ही जीभ निकालकर एक साथ सीख रहे थे। कुछ बच्चे उन कुत्तों की पूँछ पे ढेले से निशाना साधने का प्रयास कर रहे थे… बीच में कुत्तों के भौं-भौं की आवाज भी आती थी, जिसमें आक्रमण का भाव कम और दया की भीख ज्यादा थी। पूरा माहौल जीवन से भरपूर था।


कारा नेपुरा का पड़ोसी था। उसके घर के आगे हीरा-मोती जैसे दो बैल बँधे होते थे। दिवाली की रात कारा गाँजा पीके मस्त था औरा आते-जाते लोगों को दिवाली की शुभकामना अपनी टूटी-फ़ूटी गालियों से दे रहा था। उसकी मेहरारू कुम्हार से दीया माँगने गई थी। उधार माँगने पर दीया तो नहीं मिला, कुम्हार की दो-चार घुड़कियाँ ज़रूर सुननी पड़ीं। लौटकर अभी वो आँगन में बैठकर ज़िन्दगी को कोसना ही शुरु की थी कि बाहर से आवाज़ आयी- बड़ाआआम… बैल अपने खूँटे पर कुदने लगे, बकरियाँ मिमियाने लगीं… रामनिवास हाथ में माचिस लिए अँधेरे में एक-दो-तीन हो गया| फ़िर कारा ने जो गाली की बरसात शुरु की कि दिवाली के बुम-बड़ाम की आवृत्ति उसकी गगनभेदी गालियों के समक्ष कम लगने लगीं। रामनिवास जाके झट से खाट पर चादर ओढ़कर लेट गया। उसकी स्थिति उस बिल्ली की तरह थी जो चुहे को देखकर भी झपट नहीं सकती थी क्योंकि सामने ही कारा का रूप लिए एक कुत्ता मँडरा रहा था। चादर के नीचे मन यह सोचकर फ़िर भी गुदगुदा रहा था कि बैल कितना ज़ोर कुदा था…

कोई रात ऐसी नहीं बनी जिसका सहर ना हो। इस अमावस की रात का भी अंत आया। भाँग उतरने के कारण कारा थोड़ा शांत था। सुबह-सुबह रामनिवास को जगाने आया- कुश्ती खाट पर सोए सोए ही देखेगा का रे निवसवा! फ़िर जल्दी से रामनिवास उठा और चिल्लाया-चल रामसुहास, डंका बजने लगा रे… इस बार भिखारीबीघा से घिटोरन खलीफ़ा आये हैं, इलाका के पहलवानों का कच्छा गीला हो जाता है उनको देखकर… लुक भिआ!- रामसुहास आँख मलते हुए तुतलाता।


क्या नज़ारा था। गाँव के सारे लोग हाथ में लाठी लिए खड़े थे, बच्चे इधर-उधर बनियान और डोरी वाले निकर में उछल-कुद कर रहे थे। धूल धरती से आकाश तक फ़ैला हुआ था। प्रात:कालीन रक्तिम किरणें उन पर पड़कर सारे वातवरण को लाल कर रही थीं। घास पर ओस की बूँदें मोती की तरह अभी भी टंगे थे। पहले बच्चों का द्वन्द्व  शुरु हुआ। दो बच्चे आए, एक-दूसरे के गर्दन पर अखाड़े की मिट्टी लगाई और आँखों से ही एक-दूसरे को चारो खाने चित्त कर देने की कसम ली  फ़िर बड़ों की प्रतियोगिता शुरु हुई। घिटोरन पहलवान के सामने गाँव का वीर चमोकन खड़ा था। दोनों के बदन अखाड़े की धूल से धूसरित था, ललाट पर पहले दोनों ने एक-दूसरे को तिलक लगाया और अखाड़े को झुककर सादर प्रणाम किया। फ़िर मल्लयुद्ध शुरु हुआ। ज़रासंध और भीम सबकी आँखों में तैरने लगे। घिटोरन ने पलक झपकते ही एक हाथ से चमोकन की टांग को अपने कंधे पर रखकर उसे उलट ही दिया था कि चमोकन हवा में ही घिरनी की तरह नाचकर घिटोरन के नीचे आकर उलटा बैठ गया। उसके दोनों हाथों में घिटोरन पहलवान के पैर आ गये पर उन्हें उठा पाना चमोकन के वश की बात नहीं थी इसलिए उसने झट से उन पैरों को धक्का दिया और जब तक कि घिटोरन पहलवान सम्हलते, ज़मीन पर गिर चुके थे। इस तरह कभी गाड़ी पर नाव, कभी नाव पर गाड़ी हुए जा रही थी... काफ़ी समय बाद परिणाम आया- चूँकि दोनों में से कोई भी चित्त नहीं हुआ अत: दोनों को ही आज का विजेता घोषित किया जाता है।

सभी लौट रहे थे- कारा, रामनिवास, रामसुहास। कारा बता रहा था- अरे रामनिवास कल हमारी दिवाली बर्बाद हो गई यार। ना जाने किस साले को मेरे से दुश्मनी थी, मेरे बैल की एक टांग टूट गयी खूँटे पर उछलने से। रामसुहास इस बात पर खिलखिलाकर हँसने लगा तो रामनिवास ने उसे दो चपत लगाये और बोला- कितने दु:ख की बात है और तू हँसता है!

2 comments:

  1. गुड़ क्या इतना महत्त्वपूर्ण हो सकता है कि उसके लिए रामनिवास को पीटा जाए। पर उसे इस बात का एहसास नहीं था कि गुड़ की महत्ता तब और बढ़ जाती है जब उसके अतिरिक्त कुछ भी खाया नहीं जा सकता और ऐसे भी भूख जब अपने चरम पर हो तो माता क्या, कुमाता क्या- सब समान व्यवहार करती हैं।

    mere hisab se ramniwas ke jagah ramsuhar hona chahiye.. Kya bolte ho amiit.... Aur niche ki panktiyan kuchh jami nahi... bhukh charam pe ho ya na ho... Mata kumuata kabhi nahi ho sakti...

    Baki achha pryas hai... aise hi likhte rho

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  2. Thanks! sahi feedback tha bhaai... Thank you.. Always need feedback..

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