रात हो चली थी। रामनिवास काँख में टॉर्च दबाकर लुंगी कस रहा था। नेपुरा चुल्हे में भूसा झोंक रही थी, रामसुहास बगल में दीये की रौशनी में चिल्ला रहा था- सात अठे छप्पन, सात नवाँ तिरेसठ...पड़ोस में कारा अपनी पत्नी पर रोब झाड़ रहा था...झिंगुर वहीं कुछ दूर पर अपने राग अलाप रहे थे।
मईया आते हैं ज़रा राधामोहन बाबू के दलान पर से, माहौल का थोड़ा जायजा लेना है। जा न, बता काहेला रहा है, ऐसे भी तो यहाँ गरहन की तरह ही लगा हुआ है- काम के न काज के, दुश्मन अनाज के। रामनिवास का गुस्सा ऐसे तो हमेशा नाक पर ही रहता था लेकिन माँ पर उसे निकलते कम ही देखा जाता था। बिना कोई जवाब दिए रामनिवास अँधेरे को लाठी और टॉर्च से चीरते हुए राधामोहन बाबू के घर की ओर कुच कर गया। रास्ते में एक-दो कुत्तों की इच्छा हुई उस पर लपकने की, पीछे से भौंकते हुए काफी नजदीक आ भी गए पर हाथ में लाठी देखकर दुम हिलाने लगे।
दलान पर पूरी मंडली जमी थी। खाट-चौकी सब भरा पड़ा था- कोई बीड़ी सुलगाने में लगा था, कोई खैनी लगाने में जुटा था। बगल में एक कुर्सी लगी थी, जिस पर राधामोहन बाबू दिखाई दे रहे थे। चुरामन महतो खद्दर की चादर ओढ़े छींके जा रहे थे- बुढ़ापे पे पूस की रात हमेशा से भारी रही है। सबकी खातिरदारी में दो लाल्टेन जला दिए गए थे जिससे लोग एक-दूसरे के चेहरे को देख सकें और राधामोहन बाबू उन सभी चेहरों को भली-भाँति पढ़ सकें।
सुखीराम के हाथों में चिलम था। चेहरा ऊपर उठाये थोड़ी देर वो छत को देखता रहा फिर कुछ पल के लिए उसी अवस्था में आँखें मूँद ली। आँखें खुलीं तो मुँह खुला- बम भोले...फिर मुँह चिलम के स्निग्ध स्पर्श को पाकर उससे लिपट गया और पूरी ताकत से धुँए को सुखीराम अन्दर लेने लगा। जब मुँह और चिलम के प्रेम-प्रलाप का अंत हुआ तो उन काले अधरों से धीरे-धीरे धुँए का प्रवाह प्रारम्भ हुआ- ऐसा लग रहा था जैसे अभी-अभी सुखीराम ने आँखें मूँदकर जिनसे बातें की थीं उन्हीं को अधरों का स्पर्श पाया ये लहराता-बलखाता धुआँ समर्पित था। चिलम से प्राप्त ऊर्जा ने उसके शरीर के साथ-साथ मस्तिष्क तक को जीवित कर दिया। दोनों भौओं को सिकोड़कर पालथी मारते हुए सुखीराम पहले तो अपने गंभीरतम मुद्रा में गया और फिर बोला- मालिक! एक काम कीजिए। पहले तो एकगो अमदी चुना जाए जो अलग-अलग जात का हो और जिसको काम के नाम पर नींद न आता हो... माने कि एकदम फिट अमदी हो खासकर बात बनावे में। उ सब अमदी का जवाबदेही रहेगा कि अपन-अपन जात के लोगों को आपके तरफ झुकाए। कैसे झुकाएगा- डींग हाँकेगा कि ओझा-गुनी से मंतर पढ्वायेगा- उ सबका समस्या है, आपको टेंसन लेवे का कोई ज़रूरत नहीं। एक काम रहेगा पर आपका...क्या सुखीराम?...दिन-भर के बीड़ी-सिगरेट का खर्चा सबको भोरे-भोरे ही आप दे दिया कीजिए...पेट भरा रहेगा तबे काम हो पाएगा। सुभद्दर बाबू एक कोने में आँखें बंद किये पैर हिला रहे थे। धीरे से चुटकी लिए-बड़ा सही दिमाग लगाए सुखीराम, हम तो समझते थे तुम्हारा जीवन बम-भोले बम-भोले करते हुए चिलम को समर्पित हो चुका है...उपरका तल्ला तो खालिए होगा तोर पर आज मालूम पड़ा वहाँ तो साक्षात सरसती मइया विराजमान हैं। सुखीराम साधु-महात्मा की तरह अपना विचार देकर फिर से चिलम की दुनिया में जा चुका था...सुभद्दर बाबू के शब्द उसके कानों तक कैसे पहुँचते जब उसकी आत्मा चिलम के माध्यम से कैलाशपुरी पहुँच चुकी थी।
सुखीराम की बातों में वजन था, शरीर में हो न हो। सबने उसके प्रस्ताव का अपनी-अपनी चादर से बगुला के चोंच की तरह मुँह निकालकर अनुमोदन किया फिर बाहर की बर्फीली हवा के डर से अन्दर कर लिया।
कुछ वैसे लोग जो खुद को चाणक्य का अवतार समझते थे, उनका भरोसा सांख्यिकी पर अधिक था। उनके भीतर का राजनीति-शास्त्र बाहर आने के लिए उफान मार रहा था। "राधामोहन बाबू एक बार ज़रा सब जात का वोट गिन लिया जाए"- पान के पीक से भरे हुए मुँह से इस तरह की आवाज निकाल लेना किसी साधारण मनुष्य के औकात से बाहर की बात थी। इसके पीछे कई वर्षों की अविरल तपस्या थी सुद्धू बाबू की। होठों के एक कोने से थोड़ा-थोड़ा पीक रिसकर बाहरी त्वचा पर एक छोटी लाल लकीर बना रही थी जिसे अपने अस्तित्व को जिंदा रखने की बड़ी चिंता थी। ये जल्द अगर काबू में नहीं की गयीं तो उन्हें ठुड्डी के सहारे नीचे जाकर बूँद बनने से कोई नहीं रोक सकता था...हाँ भाई!ज़रूर गिन लिया जाए- विद्या बाबू का पुरजोर समर्थन आया जैसे उनके अन्दर भी बड़ी देर से हलचल मची थी। गिनती शुरु हुई-अहीर का करीबन एक हज़ार; पासवान,मोची,चौधरी, नाई, रजक बगैरह सबको मिलाके दो हज़ार; महतो के दो सौ; शर्मा जी और श्रीवास्तव जी लोगों का लगभग पंद्रह सौ। पीछे से बलिराम मुँह उचकाके चिल्लाया- पूरा जोडके कित्ता हुआ मालिक? फिर धीरे से गर्दन नीचे करके बुदबुदाया- अपने पंडित हैं त सबको यहाँ पण्डिते बुझ रहे हैं...अनपढ़ आदमी का कोई कदर ही नहीं है। राधामोहन बाबू बलिराम के मनोभाव को भाँप गए, बोले- करीब साढ़े चार हज़ार बलिराम।
रामनिवास चुक्के-मुक्के लाल्टेन के नीचे बैठा हुआ था। चिराग तले अँधेरा जितना होता है उतना उसके चेहरे पर फैलने के लिए पर्याप्त था। उसी अँधेरे की ओट में उसका मुँह खुला-मालिक! फिर हर जात का एक-एक कारकर्ता अभिए चुन लीजिए- काल करै सो आज कर, आज करै सो अब। सबको पता भी लग ही गया है कि कितना-कितना वोट सबके जिम्मे है...एक-एक नहीं दो-दो रामनिवास- राधामोहन बाबू चाय की चुस्की लेते हुए बोले। हरिजन वोट पर रामनिवास और कारा काम करेंगे, बलिराम की सहायता अपरिहार्य होगी यहाँ पर। का बोले मालिक? अपरिहार माने? माने कि ज़रूरत है हमर कि न है?- काले बलिराम का छोटा सा काला अहंकार बाहर आया। ज़रूरत ही ज़रूरत है तुम्हारा बलिराम...तुम्हारे बिना मुसहर टोली का एक भी वोट इधर से उधर हिलेगा। बलिराम गद-गद हो गया। उसे लगा एक राधामोहन बाबू ही उसके कोयले के समान वदन के पीछे छुपे हुए हीरे को पहचानते हैं बाकि सब लोग तो ऐसे ही हैं। अँधेरे में यही सोचकर वह मंद-मंद मुस्कुरा रहा था... उच्चवर्गीय समाज को सम्हालने की ज़िम्मेदारी होगी सुद्धू बाबू और विद्या बाबू पर- दोनों ये सुनकर भी हथेली पर खैनी मलते रहे जैसे कुछ हुआ ही नहीं, बस स्वीकृति में दोनों ने सर हिला दिया। महतो जी वगैरह को सुखीराम देखेंगे जिनकी सहायता चुरामन महतो करेंगे। सुखीराम का चिलम अब तक बुझ चुका था और चुरामन महतो अभी भी छींके जा रहे थे। दोनों की तरफ से आवाज आयी- जैसा हुकुम सरकार। यादव भाइयों के संसर्ग में रामजी यादव होंगे। रामजी यादव एक पाजामा और बुशर्ट पहने वहीं बैठे थे। रंग अँधेरे में भी गोरा ही दिख रहा था और बुद्धि से प्रखर प्रतीत होते थे। बी.ए. तक की पढ़ाई करने के पश्चात गाँव में ही आकर इन्होने एक दुकान खोल दी थी जहाँ आये दिन अहीरों का जमघट लगा रहता था। अँधेरे में भी उनके सर पर सरसों का तेल साफ़ चमक रहा था। बाहर से बोल पड़े- हमरा पर इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी! पर भीतर से बोल रहे थे- एक-दम सही आदमी चुने आप राधामोहन बाबू, सारा वोट दुकान पर बैठे-बैठे न वटोर दिए तो भगवान् कृष्ण के वंशज में से हमरा नाम कटवा दीजिएगा।
रात के 11 बज चुके थे। बाहर सामने की सड़क से एक बच्चा चिल्लाया- बाबूजी! मइया एक-दम गरम है, जल्दी चलिए न त खायेला भी आज न मिलेगा... सुखले सोना पड़ेगा...फिर राधामोहन चा खिलावे न आवेंगे। सुभद्दर बाबू भरी सभा में अपनी बेईज्ज़ती टाल गए, हँसकर बोले-भागता है यहाँ से...दू लाठी तोरा लगेगा और दू तोर मइया के तब जाके तू लोग बोले के सहूर सीखेगा। इसी बीच सुखीराम बोल पड़ा-अब मीटींग बर्खाश्त किया जाए राधामोहन बाबू, सच में बहुत रात हो चुकी है। कल एक-एक चक्कर सब अपने-अपने आदमियों के बीच लगाके आएगा और फिर रात को यहीं सात बजे मिलेंगे। जाते हुए कार्यकर्ताओं को राधामोहन बाबू सौ-सौ का नोट थमाकर अलविदा कहने लगे कुछ लोग बदले में हाथ जोड़कर विदा ले रहे थे और कुछ बिना किसी प्रतिक्रिया के आगे बढ़ रहे थे। रामनिवास दलान पर ही लुंगी में चावल बाँध रहा था।
सुखीराम के हाथों में चिलम था। चेहरा ऊपर उठाये थोड़ी देर वो छत को देखता रहा फिर कुछ पल के लिए उसी अवस्था में आँखें मूँद ली। आँखें खुलीं तो मुँह खुला- बम भोले...फिर मुँह चिलम के स्निग्ध स्पर्श को पाकर उससे लिपट गया और पूरी ताकत से धुँए को सुखीराम अन्दर लेने लगा। जब मुँह और चिलम के प्रेम-प्रलाप का अंत हुआ तो उन काले अधरों से धीरे-धीरे धुँए का प्रवाह प्रारम्भ हुआ- ऐसा लग रहा था जैसे अभी-अभी सुखीराम ने आँखें मूँदकर जिनसे बातें की थीं उन्हीं को अधरों का स्पर्श पाया ये लहराता-बलखाता धुआँ समर्पित था। चिलम से प्राप्त ऊर्जा ने उसके शरीर के साथ-साथ मस्तिष्क तक को जीवित कर दिया। दोनों भौओं को सिकोड़कर पालथी मारते हुए सुखीराम पहले तो अपने गंभीरतम मुद्रा में गया और फिर बोला- मालिक! एक काम कीजिए। पहले तो एकगो अमदी चुना जाए जो अलग-अलग जात का हो और जिसको काम के नाम पर नींद न आता हो... माने कि एकदम फिट अमदी हो खासकर बात बनावे में। उ सब अमदी का जवाबदेही रहेगा कि अपन-अपन जात के लोगों को आपके तरफ झुकाए। कैसे झुकाएगा- डींग हाँकेगा कि ओझा-गुनी से मंतर पढ्वायेगा- उ सबका समस्या है, आपको टेंसन लेवे का कोई ज़रूरत नहीं। एक काम रहेगा पर आपका...क्या सुखीराम?...दिन-भर के बीड़ी-सिगरेट का खर्चा सबको भोरे-भोरे ही आप दे दिया कीजिए...पेट भरा रहेगा तबे काम हो पाएगा। सुभद्दर बाबू एक कोने में आँखें बंद किये पैर हिला रहे थे। धीरे से चुटकी लिए-बड़ा सही दिमाग लगाए सुखीराम, हम तो समझते थे तुम्हारा जीवन बम-भोले बम-भोले करते हुए चिलम को समर्पित हो चुका है...उपरका तल्ला तो खालिए होगा तोर पर आज मालूम पड़ा वहाँ तो साक्षात सरसती मइया विराजमान हैं। सुखीराम साधु-महात्मा की तरह अपना विचार देकर फिर से चिलम की दुनिया में जा चुका था...सुभद्दर बाबू के शब्द उसके कानों तक कैसे पहुँचते जब उसकी आत्मा चिलम के माध्यम से कैलाशपुरी पहुँच चुकी थी।
सुखीराम की बातों में वजन था, शरीर में हो न हो। सबने उसके प्रस्ताव का अपनी-अपनी चादर से बगुला के चोंच की तरह मुँह निकालकर अनुमोदन किया फिर बाहर की बर्फीली हवा के डर से अन्दर कर लिया।
कुछ वैसे लोग जो खुद को चाणक्य का अवतार समझते थे, उनका भरोसा सांख्यिकी पर अधिक था। उनके भीतर का राजनीति-शास्त्र बाहर आने के लिए उफान मार रहा था। "राधामोहन बाबू एक बार ज़रा सब जात का वोट गिन लिया जाए"- पान के पीक से भरे हुए मुँह से इस तरह की आवाज निकाल लेना किसी साधारण मनुष्य के औकात से बाहर की बात थी। इसके पीछे कई वर्षों की अविरल तपस्या थी सुद्धू बाबू की। होठों के एक कोने से थोड़ा-थोड़ा पीक रिसकर बाहरी त्वचा पर एक छोटी लाल लकीर बना रही थी जिसे अपने अस्तित्व को जिंदा रखने की बड़ी चिंता थी। ये जल्द अगर काबू में नहीं की गयीं तो उन्हें ठुड्डी के सहारे नीचे जाकर बूँद बनने से कोई नहीं रोक सकता था...हाँ भाई!ज़रूर गिन लिया जाए- विद्या बाबू का पुरजोर समर्थन आया जैसे उनके अन्दर भी बड़ी देर से हलचल मची थी। गिनती शुरु हुई-अहीर का करीबन एक हज़ार; पासवान,मोची,चौधरी, नाई, रजक बगैरह सबको मिलाके दो हज़ार; महतो के दो सौ; शर्मा जी और श्रीवास्तव जी लोगों का लगभग पंद्रह सौ। पीछे से बलिराम मुँह उचकाके चिल्लाया- पूरा जोडके कित्ता हुआ मालिक? फिर धीरे से गर्दन नीचे करके बुदबुदाया- अपने पंडित हैं त सबको यहाँ पण्डिते बुझ रहे हैं...अनपढ़ आदमी का कोई कदर ही नहीं है। राधामोहन बाबू बलिराम के मनोभाव को भाँप गए, बोले- करीब साढ़े चार हज़ार बलिराम।
रामनिवास चुक्के-मुक्के लाल्टेन के नीचे बैठा हुआ था। चिराग तले अँधेरा जितना होता है उतना उसके चेहरे पर फैलने के लिए पर्याप्त था। उसी अँधेरे की ओट में उसका मुँह खुला-मालिक! फिर हर जात का एक-एक कारकर्ता अभिए चुन लीजिए- काल करै सो आज कर, आज करै सो अब। सबको पता भी लग ही गया है कि कितना-कितना वोट सबके जिम्मे है...एक-एक नहीं दो-दो रामनिवास- राधामोहन बाबू चाय की चुस्की लेते हुए बोले। हरिजन वोट पर रामनिवास और कारा काम करेंगे, बलिराम की सहायता अपरिहार्य होगी यहाँ पर। का बोले मालिक? अपरिहार माने? माने कि ज़रूरत है हमर कि न है?- काले बलिराम का छोटा सा काला अहंकार बाहर आया। ज़रूरत ही ज़रूरत है तुम्हारा बलिराम...तुम्हारे बिना मुसहर टोली का एक भी वोट इधर से उधर हिलेगा। बलिराम गद-गद हो गया। उसे लगा एक राधामोहन बाबू ही उसके कोयले के समान वदन के पीछे छुपे हुए हीरे को पहचानते हैं बाकि सब लोग तो ऐसे ही हैं। अँधेरे में यही सोचकर वह मंद-मंद मुस्कुरा रहा था... उच्चवर्गीय समाज को सम्हालने की ज़िम्मेदारी होगी सुद्धू बाबू और विद्या बाबू पर- दोनों ये सुनकर भी हथेली पर खैनी मलते रहे जैसे कुछ हुआ ही नहीं, बस स्वीकृति में दोनों ने सर हिला दिया। महतो जी वगैरह को सुखीराम देखेंगे जिनकी सहायता चुरामन महतो करेंगे। सुखीराम का चिलम अब तक बुझ चुका था और चुरामन महतो अभी भी छींके जा रहे थे। दोनों की तरफ से आवाज आयी- जैसा हुकुम सरकार। यादव भाइयों के संसर्ग में रामजी यादव होंगे। रामजी यादव एक पाजामा और बुशर्ट पहने वहीं बैठे थे। रंग अँधेरे में भी गोरा ही दिख रहा था और बुद्धि से प्रखर प्रतीत होते थे। बी.ए. तक की पढ़ाई करने के पश्चात गाँव में ही आकर इन्होने एक दुकान खोल दी थी जहाँ आये दिन अहीरों का जमघट लगा रहता था। अँधेरे में भी उनके सर पर सरसों का तेल साफ़ चमक रहा था। बाहर से बोल पड़े- हमरा पर इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी! पर भीतर से बोल रहे थे- एक-दम सही आदमी चुने आप राधामोहन बाबू, सारा वोट दुकान पर बैठे-बैठे न वटोर दिए तो भगवान् कृष्ण के वंशज में से हमरा नाम कटवा दीजिएगा।
रात के 11 बज चुके थे। बाहर सामने की सड़क से एक बच्चा चिल्लाया- बाबूजी! मइया एक-दम गरम है, जल्दी चलिए न त खायेला भी आज न मिलेगा... सुखले सोना पड़ेगा...फिर राधामोहन चा खिलावे न आवेंगे। सुभद्दर बाबू भरी सभा में अपनी बेईज्ज़ती टाल गए, हँसकर बोले-भागता है यहाँ से...दू लाठी तोरा लगेगा और दू तोर मइया के तब जाके तू लोग बोले के सहूर सीखेगा। इसी बीच सुखीराम बोल पड़ा-अब मीटींग बर्खाश्त किया जाए राधामोहन बाबू, सच में बहुत रात हो चुकी है। कल एक-एक चक्कर सब अपने-अपने आदमियों के बीच लगाके आएगा और फिर रात को यहीं सात बजे मिलेंगे। जाते हुए कार्यकर्ताओं को राधामोहन बाबू सौ-सौ का नोट थमाकर अलविदा कहने लगे कुछ लोग बदले में हाथ जोड़कर विदा ले रहे थे और कुछ बिना किसी प्रतिक्रिया के आगे बढ़ रहे थे। रामनिवास दलान पर ही लुंगी में चावल बाँध रहा था।
nice
ReplyDeleteagla instalment kab aayega?
ReplyDeleteComing soon zubin bhaai. Thanks Randhir ji..
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