Friday, July 6, 2012

नेपुरा-IV

छठ (सूर्य देवता की पूजा) पूजा का आज अंतिम अर्ग था। तुलेशर जब तक ज़िंदा था तो नेपुरा भी माथे से शुरु करके नाक तक  आज  सिंदूर लगाती थी  पर अब ना तुलेशर था और ना ही वो सर से नाक तक की लंबी लाल लकीर। अर्ग के बाद नदी का तट पूर्ववत् सूना था… कहीं कुछ-एक अगरबत्तियाँ सुगबुगा रही थीं और कहीं कुछ धूप-दीप अपनी अंतिम साँस बड़ी मुश्किल से ले रहे थे। नेपुरा विचारहीन अवस्था में वहीं बैठी थी। उसकी आँचल में प्रसाद बँधे थे जिस पर से रामसुहास की नज़रें हट नहीं रही थीं। माँ मेला देखने चलो ना- रामसुहास ने आग्रह किया… नेपुरा उसकी नन्ही ऊँगलियों को थामकर बिना कुछ बोले साथ चल दी। गाँव का मेला- कहीं झुला गोल घुम रहा था तो कहीं जलेबियों पर मक्खियाँ भिनबिना रही थीं... किसी तरफ़ से बंदूक के ठाँय-ठाँय की आवाज आ रही थी तो किसी तरफ़  से तुड़तुड़ी की… बच्चे अपने-अपने बाप के कंधे पर बैठकर अलग-अलग भाव चेहरे पर प्रदर्शित कर रहे थे- कोई मुँह में सिटी लेके जोर-जोर से बजा रहा था, कोई मिठाई की तरफ़ एक हाथ से ऊँगली दिखाकर  रो रहा था और दूसरे हाथ से अपने पिता को मार रहा था ... कोई हाथ में गुब्बारे लिए मुस्कुरा रहा था जैसे गौतम बुद्ध की तरह उसे भी ज्ञान की प्राप्ति हो गई हो ... पर रामसुहास का चेहरा भावहीन था, माँ के आँचल की एक कोरी को ही वो मिठाई समझकर चबा रहा था…नेपुरा शांत खड़ी थी- बिल्कुल क्रियाहीन।  उसकी गरीबी मजबूरी का लिबास पहने उस पर हँस रही थी| जब उससे अपने बेटे की विवशता नहीं देखी गई तो मेले से गाँव की ओर तेज़ कदमों से उसने चलना शुरु कर दिया। रामसुहास रास्ते में बस इतना बोला- दद्दु था तो मुझे जलेबी खिलाता था… वेदना की पराकाष्ठा थी इस नन्ही आवाज में जो एक विधवा की सूखी आँखों से किसी तरह आँसू की एक बूँद निकाल पायी।


गाँव के बाहर की तरफ़ जो नीम का पेड़ था, उसकी छाँव तले एक गमछा बिछा दिया गया था और उसके चारों तरफ़ चार लोग बैठे हुए थे। ताश के पत्ते दो ऊँगलियों की सहायता से बड़ी कलाकारी से उस पर फ़ेंके जा रहे थे।ताश खेलनेवालों में खुदा का एक नूर था, नाम था- बलिराम। रंग कोयले से भी थोड़ा गहरा, काले चेहरे पर चार चाँद लगाते उस पर विराजमान कुछ और काले धब्बे, नाक सामान्य, काले होठों के नीचे नमक और सरसो-तेल से चमकाये गए उजले मोतियों जैसे दाँत... बाल, भौं और आँख की पुतलियाँ-सब काली पर धूल-धूसरित। शरीर पर एक अंडरवियर और एक गमछा के अलावा उसे कुछ रखना मंजूर नहीं था। ताश का माहौल जहाँ भी बनता, गमछा ज़मीन पर बिछ जाता और वो अंडरवियर में साक्षात् ब्रह्म का रुप लिए एक किनारे बैठ जाता। नेपुरा पर नज़र पड़ते ही उलझे बालों में ऊँगलियाँ फ़ेरते उसकी भविष्यवाणी शुरु हुई- बेटा रामनिवास! लूँगी पिछवाड़े पर बाँध लो, दीदी आ रही है। 


रामसुहास चिल्लाया- भईया! रामनिवास का एक तरफ़ का गाल जो खैनी के कारण फ़ुला हुआ था, अचानक से माँ को देखकर पचक गया। नेपुरा से नज़र बचाकर उसने जल्दी से खैनी थुका और बोल पड़ा- मैं खेल थोड़े रहा था वो तो कारा पकड़के ले आया था... कारा दूर से ही दो दाँत दिखा रहा था कि  कहीं नेपुरा उस पर बरस ना पड़े। नेपुरा कुछ नहीं बोली बस उन्हीं कदमों से घर की तरफ़ बढ़ती चली गई। पीछे-पीछे रामनिवास भी दबे कदमों से चलने लगा... मर काहे नहीं जाता उसी नीम पर रस्सी से लटकके... हम्मर जान तो छूटेगा ...एक हाथ जीभ बाहर आएगा... दुनिया से तोरा मुक्ति मिल जाएगा रे रमनिवसवा और तोरा से हमरा .. बिना बाप का बेटा ऐसे भी खुला साँढ़ होता ही है, तु खुला जंगली हाथी बन जा।रामनिवास बस सर झुकाये सब सुन रहा था पर पीछे-पीछे आना उसने छोड़ा नहीं था। 



गालियों से भरा सफ़र घर के बाहर खाट पर बैठे फ़कीरा के पास आकर खत्म हुआ। नेपुरा पूछी- मालिक आए थे क्या? हाँ, रामनिवास को खोजने आए थे... ये करमजला तो नीम के नीचे ताश खेल रहा था...अब जाओ भी मालिक के पास यहाँ क्या टुकुर-टुकुर हमरा निहार रहे हो...


राधामोहन बाबू सिगरेट जलाये घर के बाहर ही बैठे थे। क्या बात है मालिक, टेंसन में लग रहे हैं?- रामनिवास पूछा।  राधामोहन बाबू आसमान की तरफ़ देखकर एक दुखी आत्मा का अभिनय करते हुए बोले- मुखिया के चुनाव में सबने खड़ा करवा दिया है रामनिवास, मैं तो कह रहा था इस बुढ़ापा में काहे मरवाना चाहते हो...घर तो आज-तक चला नहीं पाए, इलाका क्या चलाएँगे... पर कोई नहीं माना, कल जाके प्रखंड में अर्जी भी देनी है| मालिक इसमें पिरौबलम का है? आप मुखिया बने तो हमारी भी गरीबी कुछ मिट जाएगी... मेरे विरोध में रामदहिन खड़ा है रामनिवास! उसके पास पैसा भी बहुत हो गया है और सुना है छोटी जातियों का समर्थन भी उसे प्राप्त है। मुँडा चमार के यहाँ तो रोज का उसका उठना-बैठना है... उसके यहाँ ताड़ी पिए बगैर कभी रात में घर सोने तक नहीं जाता वो... का बात करते हैं मालिक! रामनिवास अप्पन मोंछ कटवा के कुइयाँ में फेंक देगा अगर हरिजन का एक भी वोट आपके खिलाफ़ टस से मस हुआ तो! 


अगली सुबह काको प्रखंड में अर्जी दी गई। राधामोहन बाबू का गला गेंदे के फूल की माला से सुसज्जित था। रामनिवास चिल्ला रहा था- आपका मुखिया कैसा हो... राधामोहन बाबू जैसा हो... उधर से रामदहिन बाबू के समर्थक चिल्ला पड़े-- आधा रोटी तावा में... राधामोहन सिंह हावा में। चुनाव प्रचार यहीं से शुरु हो गया था। प्यादे से मंत्री तक- शतरंज के सारे मोहरे आज रात तय होनेवाले थे...नेपुरा खुश थी, उसे पता नहीं था क्यूँ!

10 comments:

  1. bhai tere bheetar Renu ki aatma aa gayi hai. Awesome dude, har bar tu agalg hi kahar barpata hai.

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  2. बहुत अच्छा लिख रहे हो. ख़ासकर जब परिस्थितियों का वर्णन करते हो तो बहुत बारीकी दिखती है उसमें. और दृश्य आँखों के सामने आ जाता है. कुछ पंक्तियाँ जो मुझे बहुत पसंद आईं-

    बगल में उसका मुँहबोला बेटा मिट्टी और उसकी डाँट एक साथ खा रहा
    उसकी चिड़चिड़ाहट साफ़ बता रही थी कि बाहर तापमान कितना ज्यादा है!!
    बेईमानी और रिश्वतखोरी पर इस देश में किसी खास तबके का अकेला अख्तियार नहीं- यह हर जगह समान रूप से हर वर्ग में विद्यमान है।
    तुलेशर जाते-जाते आलू की कीमत अपने साथ ले जा चुका था...

    मेरे हिसाब से बस एक बात का ध्यान रखो की जब कोई पात्र कुछ बोलता है तो उसकी बोली मे शुद्ध बोली का प्रयाग मत करो. क्यूंकी पात्र ठेठ देहाती है और जब वो शुद्ध हिन्दी बोलता है तो थोड़ा अटपटा लगता है. जैसे 'क्या' की जगह 'का' का प्रयोग होना चाहिए. ऐसा बहुत जगह पे हुआ भी है, लेकिन जहाँ नहीं हुआ है वो थोड़ा अजीब लगता है.
    बाकी बहुत अच्छा लग रहा है पढ़ के, अगले किस्त के इंतेज़ार में.....

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  3. अभिजीत जी क्या सही कमेंट दिया है आपने। ये पात्र वाली बात बिल्कुल सही कही आपने। मैने कहीं कहीं खुद को रोककर पात्रों से शुद्ध हिन्दी बुलवायी थी। मुझे लग रहा था कुछ लोग एकदम खेत्रीय भाषा बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे पर मुझे सच में थोड़ा सही लगा कि quality के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं होनी चाहिए।

    Thanks for the precious comment!

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  4. i read this one....every single word is well connected...i loved it as it seems like words flowing in one direction like a river

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  5. Thanks Amita for such encouraging words!

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  6. बहुत ही सुन्दर
    beautifully penned

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  7. your observations are in great depth and presentation is quite natural. Dialogues and language improves with study and experience. you have potential to be a good writer.
    best wishes!

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  8. Thanks SM ji :)

    Harishankar Rathi ji... Trying hard on reading multiple books and articles.. Experience does matter.. Thanks for your sincere feedback!

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  9. mein koi samikshak nahi hun or na mein sahitya ka gyata,
    mere ko nahi malum ki kitna ghera likha hay ya kitna nahi ..shabad or language kayse hay ...ik baat malum hay ki tum ne is sab ko mehsus kar ke likha hay or vo padney waley ko bandhey rakhta hay ....or yhe sab se jada zaruri hay kuch bhi likhney ke liye :)

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  10. Thanks Rajan bhaai! tu saahitya ko samjhe na samjhe, shabdon ko toh samajhta hai...ye main jaanta hun..

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