Saturday, August 2, 2025

छठ

व्हाय आर यु लीविंग दादी? चिन्मय की नन्ही उँगलियों ने मिश्रा जी की पत्नी की साड़ी के आँचल की एक कोरी को खींचा | 

गोइंग इंडिया... भारत...  देन माय विलेज.. इतनी ही अंग्रेजी आती थी मिश्रा जी की पत्नी को पर काफी था पोते को समझाने के लिए | उसके माथे को छुआ और ढेर सारा आशीर्वाद दिया |  

चिन्मय अभी चार साल का था और उसको इतना ही पता था कि इंडिया उसके डैड का घर है जहाँ वो आज तक नहीं गया | अब कोरोना ख़त्म हो गया है तो इस साल जाएगा - छठ जैसा कोई त्योहार है, उसी को मनाने |

प्रभाकर और उसकी वाइफ रीता ने मिश्रा जी और उनकी पत्नी को न्यूयॉर्क एयरपोर्ट छोड़ा और वहाँ से वे भारत आ गए | अगली शाम गाँव के दलान पर दोनों चाय पी रहे थे जब चिन्मय का वीडियो कॉल आया -

हाउ आर यु दादी? चिन्मय अपने आयरन मैन वाले टॉय के साथ खेल रहा था |  
गुड बेटा- बोलकर ठिठक सी गईं | 
सी यू इन इंडिया दिस इयर फॉर छठ- काफी खुश था वो | 
यस यस - दादी मुस्कराई | 

बात ख़त्म हुई तो उदासी शाम के साथ गहराने लगी | बड़ा सा पुराना घर था जिसकी दीवारें प्लास्टर के लिए तरस रही थीं | आँगन से सब्जी के तीन-चार लत्ते उन्हीं दीवारों के सहारे छत तक पहुँच गए थे | कोने में एक हरा रंग का चापाकल भी था - बूढ़ों के पानी का सहारा | घर के पीछे बड़ा फूस का घर था जिसे गाय, बैल के रहने के लिए अरसों पहले बनाया गया था | अब एक भी जानवर नहीं थे | कुल मिला जुलाकर जब रात हुई तो पति-पत्नी इस खंडहर होते घर के एक रोते कमरे में जाकर सो गए और उधर प्रभाकर और उसकी वाइफ अमेरिका में एक सॉफ्टवेयर कंपनी के ऑफिस में लैपटॉप के सामने बैठ गए | एक तरफ आँखें सूखी दीवार को देख रही थीं और दूसरी तरफ सुनहरे भविष्य को | 

सुबह हुई तो गाँव के लोग मिश्रा जी से मिलने आए | 

"विदेश में मजा आया चचा?"
"बहुत... का बढ़िया जगह है... मत पूछो " - बाहर से मिश्रा जी बोल रहे थे | "बेकार... कैद थे एकदम" - अंदर से बोल रहे थे | 
"सुनते हैं एकदम साफ़ हवा है चचा?"
"अरे! इतना साफ़ कि रात को चाँद पर का पत्थर गिन दो " और अंदर से - "हवा का अँचार डालना है!!"
"प्रभाकर कइसा है चचा? बड़ा आदमी बन गया अब तो "
"हाँ ! सब भगवान् की दया है " और अंदर से - "अचिवर बनना है लाइफ में.. इंसान पैदा किये थे... मशीन बन गया "

कोने से मिश्रा जी की पत्नी वही सुन पायीं जो बाहर से मिश्रा जी बोल रहे थे | अंदर की आवाज़ सुनने का यंत्र अब तक बना नहीं था |  थोड़ी क्षुब्ध हुईं पर बेटे की बड़ाई की ख़ुशी के तले वो निर्दोष गुस्सा जहन में ही कहीं दब गया | 

दीवाली के बाद छठ आने वाला था | घरों में चावल, गेहूँ धोकर सुखाए जाने लगे थे - खीर और ठेकुआ बनाने के लिए | गन्ना , पाँच फल , नारियल - सबका इंतज़ाम होने लगा था | मिश्रा जी में अजीब उत्साह था | उनकी पत्नी हर साल की तरह इस बार भी छठ कर रही थीं पर जिसके लिए छठ किया जा रहा था वो सालों बाद आनेवाला था |  

"इ बार त बगल के गाँव में भी परसाद जाएगा कारण प्रभाकर का दोस्त सब मिले आएगा " - मिश्रा जी हँसते हुए बोले | 
"हाँ त बबलू से आधा मन जादा गेहूँ धुलवाए हैं" - पत्नी स्त्री-रूप वाला मुँह बनाकर बोलतीं जैसे मिश्रा जी को अकेले सिर्फ चिंता है | 

फ़ोन की घंटी बजी | बबलू दौड़कर फ़ोन उठाने गया | 

"हैलो चिन्मय" बबलू ने कहा फिर फ़ोन मिश्रा जी को दे दिया | 
"दादू, डैड एंड मॉम आर वेरी बैड" चिन्मय ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था | 
"गिव मी फ़ोन प्लीज चिन्मय" - पीछे से आवाज़ आयी और प्रभाकर ने फ़ोन ले लिया | 
"दादा हमलोग छठ में नहीं आ पाएँगे" - प्रभाकर की ये वाली आवाज गेहूँ धो रही मिश्रा जी की पत्नी के कानों तक भी पहुँची और हाथ गेहूँ में ही रुक गए  | 
"का हुआ प्रभाकर?"
"वो एक अर्जेंट मीटिंग आ गई है - छोड़ पाना मुश्किल है"
"कोई बात नहीं बेटा, काम जादे ज़रूरी है... छठ तो अगले साल भी आएगा " - इससे ज्यादा मिश्रा जी कुछ नहीं बोल पाए और फ़ोन रख दिया | 

शाम हो रही थी |  दोनों पति-पत्नी छत पर चाय पीते हुए दूर फलक पर डूबते सूरज को देख रहे थे | बिलकुल शांत ! कोई बातचीत नहीं - जैसे मूक होकर ही एक दूसरे की आत्मा को पढ़ रहे हों | अचानक भावना के बयार ने बूढ़ी औरत को तोड़ दिया और फफक पड़ीं - काहे ला विदेश भेजे थे... बोलती हुई नीचे चली गयीं | मिश्रा जी छत पर सूरज को ही देखते रहे| 

छठ आया | घरों में शारदा सिन्हा गूंजने लगीं -

"केलवा के पात पर उगे लन सूरूज मल झाँके झुंके "
"हे करेलु छठ बरतिया से झाँके झुंके"

मिश्रा जी हाथ में लोटा लिए हर साल की तरह अर्ग दे रहे थे | पत्नी पानी में सूप लिए,  साड़ी में पूर्णतः भीगी हुई , नाक  तक सिन्दूर लगाए सूरज को देखते हुए गोल-गोल घूम रही थीं | 

शारदा सिन्हा अभी भी वहीँ थीं- 

"हमरो जे बेटवा... कवन अइसन बेटवा से उनके लागी..."

सुनकर आँखों से आँसू छलक पड़े पर गोल घुमना नहीं रुका | मिश्रा जी बस इतना ही बोल सके - काहे रोती हो ? हम तो ज़िंदा हैं न | 


 





8 comments:

  1. Hum toh nahi bhej rahe videsh

    ReplyDelete
  2. बहुत ही सुंदर रचना है... भीतर की उलझनों, दुविधाओं और टूटते रिश्तों की वेदना को बड़ी सच्चाई से उकेरा गया है। इसमें डाइसपोरा के उस दर्द की झलक है जिसे शब्दों में बयां करना मुश्किल होता है, खासकर भारतीय उपमहाद्वीप और तुर्की जैसे देशों से गए प्रवासियों के लिए, जिनकी जड़ें गाँव के आँगन में हैं और शाखाएँ कहीं दूर किसी कॉर्पोरेट खिड़की के बाहर हिलती हैं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद दोस्त very encouraging 🙏

      Delete