बजरंग ओवैसी और अयूब तिवारी का घर पड़ता तो था इस्माइल टोला और दुबे नगर में, पर दोनों घर मोहल्ले की सीमा पर बसे होने के कारण आमने-सामने थे | होली हो या ईद - उल्लास दोनों घरों में समान होता था | ऐसा गहरा और सही मायने में धर्म-निरपेक्ष सम्बन्ध उनके दादा-परदादा के ज़माने से चला आ रहा था |
दोनों के पिता इनसे भी चार कदम आगे थे | बजरंग के पिता थे - शमसुद्दीन ओवैसी और अयूब के पिता थे - महेश नारायण तिवारी | दोनों लंगोटिया यार- वैसा वाला जो बचपन से ही एक-दूसरे को लंगोट में देखे होते हैं | शमसुद्दीन ने गोश्त तक खाना छोड़ दिया था और महेश जी शमसुद्दीन के नमाज़ के वक्त मस्जिद में ही पड़े होते थे | शायद इसी दोस्ती की वजह से बजरंग ओवैसी और अयूब तिवारी जैसा अनोखा नाम रखना उनके लिए बड़ा सामान्य था | दोनों बूढ़े हो चले थे पर मंदिर के पीपल वाले पेड़ के नीचे ताश खेलते और झगड़ते रोज दिख जाते थे |
कुछ और बूढ़े मजे लेते थे- भाई, तुम दोनों को या तो हिन्दू होना था या मुसलमान - समझ नहीं आता खुदा गलत कर गया या भगवान्... फिर सारे बुड्ढे हँसने लगते |
शमसुद्दीन का जवाब आता- मियाँ ! हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप के साथ मिलकर अकबर बादशाह के खिलाफ एक मुसलमान जंग में लड़ा था, पता है कौन?
बुड्ढे पूछते- कौन ?
हाकिम खान सूरी... हम वही मुसलमान हैं... बात करने आ जाते हो मियाँ!
सारे हिन्दू-मुसलमान बुड्ढे फिर दाँत निपोरने लगते |
बजरंग की दर्जी वाली और अयूब की पूजा वाली दुकान बिल्कुल अगल-बगल थी| लोग अयूब से पूजा के लाल-पीले कपड़े खरीदकर बजरंग के पास सिलवाने आते थे | पूरा क़स्बा बजरंग और अयूब के घरों की मित्रता पर गर्व करता था |
आखिरकार एक दिन शहर से घुमता हुआ चुनाव यहाँ आ गया जैसे रेगिस्तान वाली धूप कभी-कभी मैदानी इलाके में पहुँच जाती है| चुनाव राजनीति लाया जैसे धूप गर्मी लाती है | राजनीति फिर धर्म, जाति, क्षेत्रवाद और न जाने क्या क्या लेकर आई जैसे गर्मी पसीना, शरीर पर दाने, चक्कर और न जाने क्या-क्या लाती है |
दुबे नगर और इस्माइल टोला के बीच की वो कच्ची सड़क देखते-देखते एक ऐसी नदी बन गई जिसके दोनों किनारे कभी नहीं मिलते | हाकिम खान सूरी साहब अकेले नमाज़ अदा करने लगे और महाराणा प्रताप अकेले मंदिर के पीपल के पेड़ के नीचे बैठने लगे | ताश के पत्ते किसी कोने में अलग दुबक गए थे |
बजरंग और अयूब पर नए ज़माने के थे, विचार भी नया था इसलिए दुकान पर तो दुनिया के सामने हिन्दू-मुसलमान बने रहते पर रात होते ही सड़क वाली नदी पर उनकी साइकल वाली नाव साथ में चल पड़ती | एक टीले पर जाकर दोनों साथ बैठ जाते |
अब्बा तो जीते जी मर गए हैं , उनकी ज़िंदगी देखी नहीं जाती | मस्जिद में बाकी लोग मिलते हैं चुनाव की तैयारी करते हैं पर अब्बा बिना कुछ बोले नमाज़ पढ़कर घर आ जाते हैं - बजरंग मायूस था |
रुको, कुछ करता हूँ कल - अयूब ने दिलाशा दिया|
अगले दिन दोनों अपने-अपने स्तर से अब्बा और पिता को समझाकर दुकान चले गए |
आज रात को सड़क वाली नदी पर साइकल वाली चार नावें चल रही थीं - झूमते हुए |
Kash yeh sirf ek kahani nahi hoti
ReplyDeleteLikhkar mujhe bhi aisa hi lagaa tha…
Delete