Thursday, July 17, 2025

सड़क वाली नदी

बजरंग ओवैसी और अयूब तिवारी का घर पड़ता तो था इस्माइल टोला और दुबे नगर में,  पर दोनों घर मोहल्ले की सीमा पर बसे होने के कारण आमने-सामने थे | होली हो या ईद - उल्लास दोनों घरों में समान होता था | ऐसा गहरा और सही मायने में धर्म-निरपेक्ष सम्बन्ध उनके दादा-परदादा के ज़माने से चला आ रहा था |  

दोनों के पिता इनसे भी चार कदम  आगे थे | बजरंग के पिता थे - शमसुद्दीन ओवैसी  और अयूब के पिता थे - महेश नारायण तिवारी | दोनों लंगोटिया यार- वैसा वाला जो बचपन से ही एक-दूसरे को लंगोट में देखे होते हैं | शमसुद्दीन ने गोश्त तक खाना छोड़ दिया था और महेश जी शमसुद्दीन के नमाज़ के वक्त मस्जिद में ही पड़े होते थे | शायद इसी दोस्ती की वजह से बजरंग ओवैसी और अयूब तिवारी जैसा अनोखा नाम रखना उनके लिए बड़ा सामान्य था | दोनों बूढ़े हो चले थे पर मंदिर के पीपल वाले पेड़ के नीचे ताश खेलते और झगड़ते रोज दिख जाते थे |  

कुछ और बूढ़े मजे लेते थे- भाई, तुम दोनों को या तो हिन्दू होना था या मुसलमान - समझ नहीं आता खुदा गलत कर गया या भगवान्... फिर सारे बुड्ढे हँसने लगते | 

शमसुद्दीन का जवाब आता- मियाँ ! हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप के साथ मिलकर अकबर बादशाह के खिलाफ एक मुसलमान जंग में लड़ा था, पता है कौन? 

बुड्ढे पूछते- कौन ? 

हाकिम खान सूरी... हम वही मुसलमान हैं... बात करने आ जाते हो मियाँ! 

सारे हिन्दू-मुसलमान बुड्ढे फिर दाँत निपोरने लगते |   

बजरंग की दर्जी वाली और अयूब की पूजा वाली दुकान बिल्कुल अगल-बगल थी| लोग अयूब से पूजा के लाल-पीले कपड़े खरीदकर बजरंग के पास सिलवाने आते थे | पूरा क़स्बा बजरंग और अयूब के घरों की मित्रता पर गर्व करता था | 

आखिरकार एक दिन शहर से घुमता हुआ चुनाव यहाँ आ गया जैसे रेगिस्तान वाली धूप कभी-कभी मैदानी इलाके में पहुँच जाती है| चुनाव राजनीति लाया जैसे धूप गर्मी लाती है | राजनीति फिर धर्म, जाति, क्षेत्रवाद और न जाने क्या क्या लेकर आई  जैसे गर्मी पसीना, शरीर पर दाने, चक्कर और न जाने क्या-क्या लाती है | 

दुबे नगर और इस्माइल टोला के बीच की वो कच्ची सड़क देखते-देखते एक ऐसी नदी बन गई जिसके दोनों किनारे कभी नहीं मिलते |  हाकिम खान सूरी साहब अकेले नमाज़ अदा करने लगे और महाराणा प्रताप अकेले मंदिर के पीपल के पेड़ के नीचे बैठने लगे | ताश के पत्ते किसी कोने में अलग दुबक गए थे | 

बजरंग और अयूब  पर नए ज़माने के थे, विचार भी नया था इसलिए दुकान पर तो दुनिया के सामने हिन्दू-मुसलमान बने रहते पर रात होते ही सड़क वाली नदी पर उनकी साइकल वाली नाव साथ में चल पड़ती |  एक टीले पर जाकर दोनों साथ बैठ जाते | 

अब्बा तो जीते जी मर गए हैं , उनकी ज़िंदगी देखी नहीं जाती | मस्जिद में बाकी लोग मिलते हैं चुनाव की तैयारी करते हैं पर अब्बा बिना कुछ बोले नमाज़ पढ़कर घर आ जाते हैं  - बजरंग मायूस था |

रुको, कुछ करता हूँ कल - अयूब ने दिलाशा दिया| 

अगले दिन दोनों अपने-अपने स्तर से अब्बा और पिता को समझाकर दुकान चले गए | 

आज रात को सड़क वाली नदी पर साइकल वाली चार नावें चल रही थीं - झूमते हुए | 


 



 

 

2 comments:

  1. Kash yeh sirf ek kahani nahi hoti

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    1. Likhkar mujhe bhi aisa hi lagaa tha…

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