Wednesday, August 20, 2025

रिश्ते

प्रांजल मुंबई के अपने फ्लैट की बाल्कनी से अपलक समंदर को देख रहा था | बीच-बीच में कंठ को छूती चाय की घूँटें  आँखों को  बंद कर देती थीं | कई बार पत्नी ने टोका था - बड़े आदमी हो गए हो....पूरा यूरोप का बिज़नेस देखते हो...गरीबों की तरह चाय ही पीते रहते हो... ग्रीन टी शुरू कर दो या  ऐट  लिस्ट  कॉफ़ी...

बनारस की औरतें भले ही मॉडर्न बनने लगें रीता... आदमी तो ताउम्र चाय ही पियेगा... क्यूँ भइया ? - अपने बेटे रोहन की तरफ देखते हुए प्रांजल ने थोड़ा व्यंग्य और थोड़ा गर्व से जवाब दिया |

"मरो देहाती भुच्चड़ बनारसी तुम, मैं ज़रा ज़ारा के शो-रूम से आती हूँ "- रीता बोली |   
"और हाँ माँ- बाबूजी को स्टेशन से लाना मत भूल जाना, अभी तो आये थे चार  महीने पहले... शांति से बनारस में टिका नहीं जाता " 
"बेटे का घर देखने भी न आयें ?" - इस बार प्रांजल की बातों में थोड़ा गुस्सा था पर तब तक रीता ठाक से दरवाजा बंद करके निकल चुकी थी| 

"देख रहे हो रोहन भइया फटा हुआ कपड़ा खरीदेंगी हमारे क्रेडिट कार्ड से अब और स्टाइल बताएँगी इसको" - बेटे के सामने माहौल को सामान्य करने के लिए प्रांजल हँस पड़ा | 

"इट्स स्टाइल ब्रो - बोलेगी पापा जबकि मैंने मम्मा का बचपन का फोटो देखा है कैसे बनारस में भैंस के उपले ठोकती थीं " - रोहन भी मजे लेता | 

"किस्मत है भइया... किस्मत"

"आइ ऑल्सो वांट टू ज्वाइन यू फॉर दादू पिक-अप"

"बिल्कुल चलिए"

फिर दोनों स्टेशन जाकर माँ-बाबूजी को ले आये | 

रीता भी तब तक घर आ चुकी थी और ज़ारा की जगह शुद्ध देशी परिधान में उसे आना पड़ा था | सिन्दूर - जिससे उसे मुंबई आकर स्किन अलर्जी होने लगी थी, भी लगाना पड़ा था | एक तो इस डाउनमार्केट लुक से उसे प्रॉब्लम थी और दूसरी उसकी प्राइवेसी - इन्हीं दो कारणों से न उसको बनारस जाना था और न बनारस से किसी का आना उसे पसंद था | हालाँकि उसकी पूरी ज़िंदगी एक कमरे के घर में गुजरा था जहाँ प्राइवेसी शब्द किसी डिक्सनरी में नहीं होता पर अब वो मॉडर्न लेडी थी - किट्टी जाती थी, इंडिविजुअलिटी  और प्राइवेसी जैसे शब्द की अहमियत समझती थी, ओपन माइंडेड होना क्या होता है - वो उसे मुंबई आकर पार्टियों में समझ आने लगा था | 

रोहन मस्त दादु-दादी के साथ बाल्कनी में खेल रहा था | दादू-दादी गौरवान्वित थे, ख़ुश थे कि बेटे ने इतना अच्छा घर खरीदा था | प्रांजल माँ-बाबूजी की ख़ुशी से खुश था पर कुल मिला-जुलाकर रीता अकेली इन  खुश लोगों के बीच अब दुखी थी |

"क्या हुआ रीता ? ऐसे क्यूँ बिहैव कर रही हो? पाँच साल पहले तो अम्मा-बाबूजी के साथ साल-साल तुम ख़ुशी से रही थी " - - प्रांजल ने रात को सोते समय पूछा | 

"वो समय अलग था प्रांजल और अब अलग - मेरी अपनी भी एक लाइफ है जो रुक जाती है इनके आने पर " 

"अच्छा! रोहन को उस समय पालना था तो वे अच्छे थे - नहीं ? "

"जो समझना है समझो मुझे कोई एक्सप्लानेशन नहीं देना - और ये सिर्फ तुम्हारे पेरेंट्स के लिए नहीं मेरे पेरेंट्स के लिए भी ट्रू है"

"बट डज दैट जस्टिफाई योर बिहेवियर ?" 

"मैंने कहा न - मुझे कोई एक्सप्लानेशन नहीं देना!!!"

फिर दोनों उलटे करवट लिए अपनी-अपनी दीवारों को देखने लगे | प्रांजल के दीवार के उस तरफ अम्मा सो रही थीं रोहन के साथ | बाबूजी बाल्कनी में बीड़ी पी रहे थे इसलिए सारी बातें उन तक पहुँच गईं | 

अगली सुबह बाबूजी ने अकेले में प्रांजल को बुलाया - बहू से काहे को हमारे लिए लड़ता है ? 

प्रांजल शांत नीचे फर्श को देख रहा था | 

बाबूजी फिर बोले - देखो भइया ! हम तो अपनी ज़िंदगी जी लिए | हमारे लिए अगर तुम अपनी गृहस्थी खराब करोगे तो हम का खुश रहेंगे ?  रोहन पर का असर पड़ेगा कभी सोचे हो भइया ?

प्रांजल अभी-भी नीचे फर्श को देख रहा था | 

बाबूजी आगे बोले - हमारी टिकट करा दो जल्दी से और बहू को बोल दो चाचा की तबियत सही नहीं इसलिए जाना पड़ेगा | 

प्रांजल का चेहरा अचानक से बाबूजी पर गया और आते आँसू को पलकों पर ही रोक लिया | प्रांजल उस दौर का बेटा था जिसमें बाप बेटे से प्यार तो बहुत करता था पर गले नहीं लगा पाता था | एक झिझक थी जो बनी रहती थी | दोनों पलकों पर बूँदों को रोके अपने-अपने कमरे में ऐसे गए जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो | 

फिर प्रांजल ने दोनों की टिकट करा दी | रोहन को दादी के जाने की खबर मिली तो वो रोने लग गया | दादी ने उसे समझाया कि अबकी बार दोनों नाव से बनारस में गंगा आरती देखेंगे | 

ट्रेन में अम्मा ने पूछा - इतनी जल्दी क्यूँ आप लौटने की ज़िद कर दिए ? 

"चिड़ियाँ के बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो उनकी उड़ान भी अपनी होती है और घोंसला भी अपना" - फिर बाबूजी गमछा से अपनी आँखों को ढँक लिए | अम्मा चुपचाप बाहर खिड़की से उलटी दिशा में दौड़ते पेड़ों को देखने लगीं - अब आँचल को आँख पर रखने की उनकी बारी थी | 

उधर प्रांजल चाय के साथ बाल्कनी में बैठा था | इस बार आँखें स्वतः बंद थीं | कुछ अंदर से उसे काट रहा था - बनारस की गलियाँ कहीं यूरोप के बिज़नेस से बेहतर तो नहीं थीं ? 



  

Wednesday, August 6, 2025

बभनन-दुसधन

"आपको देखकर पता चलता है कि वफ़ादारी का भी एक चेहरा होता है कटप्पा... ज़ोर से बोलो सियावर रामचंद्र की जय" - इतना कहकर मदन पासवान उर्फ़ कटप्पा नीम की डाली से नीचे कूद गया | ऊपर पेड़ से उसकी सेना चिल्लाई - कटप्पा ! भाग काहे रहा है? एक-दो और डायलॉग तो सुना दे भाई  पर वो भागे जा रहा था नीचे गिरते हुए फटे निकर को किसी तरह कमर तक हाथों से दबाये हुए| 

सेना की नज़र अब पेड़ की जड़ के चारों ओर बनी छाया पर गई | हाथ में डंडा लिए उनके माँ-बाप नीचे इंतज़ार कर रहे थे | अब उनको समझ आया कि सेनापति युद्ध के मध्य में क्यूँ उनको वेवश छोड़के भाग गया | डंडा लिए कटप्पा की माँ उसके पीछे दौड़ रही थीं पर वो कहाँ हाथ आनेवाला था |  सेना पर बच नहीं पायी, जंग के सिपाही की तरह नहीं बल्कि मध्य युग के गुलाम की तरह उन्हें धोया गया | 

बात बस इतनी थी कि आज कक्षा का परिणाम आया था |  कटप्पा और उसकी सेना फेल करके नीम की डाली पर जश्न मनाने आये थे | कुछ पके नीम खाकर अगला प्लान पोखर में तैराकी करना था फिर पीपल के पेड़ के नीचे गिल्ली-डंडा |   

उधर कटप्पा का प्रिय मित्र बाहुबली परीक्षा में प्रथम आकर घर में चावल, दाल और चोखा खा रहा था |  कटप्पा भागता-भागता उसके घर पहुँचा और युद्ध के तुरंत आनेवाले विनाशक परिणाम से अवगत कराया | बाहुबली ने उसे घर के एक कोने में छुपाया ही था कि रणभेरी बजी - जिन्दा नहीं छोड़ेंगे रे आज तुमको कटप्पा... करमजला पढ़ेगा नहीं त बाप की तरह ही हरवाही करेगा | 

बाहुबली अनजान बनने का नाटक करते हुए बोला- "का  हुआ चाची?" 
"फिर फेल किया आउ का होगा" - क्रोधित जवाब आया | 
"हमको पता है उ एहीं छुपल है"
"न चाची... इस्कूल के बाद हम उसको देखे ही नहीं हैं"
"अच्छा! कहाँ जाएगा - रात को तो घर ही आना है , छुपा लो अभी"

कटप्पा उर्फ़ मदन पासवान के पिता,  बाहुबली उर्फ़ प्रताप चौधरी के पिता का खेत जोतते थे | दोनों परिवार को बाहुबली इतना पसंद आया था कि अपने बेटों का पुकारु नाम इसी फिल्म के चरित्र पर रख दिए थे | 

जब बाहुबली की माँ ने कटप्पा की अम्मा को समझा बुझाकर घर भेजा तो धीरे से कटप्पा बाहुबली के टूटे हुए भवन के जीर्ण होते  आँगन में प्रकट हुआ |

"बच गए चाची... " - कटप्पा ने थोड़ी राहत की साँस ली| 
"पढ़ता क्यूँ नहीं है? " - बाहुबली की माँ ने डाँटा | 

"फेसबुक, इंस्टा, व्हाट्सएप्प चलाने से फुर्सत मिलेगा त न पढ़ेगा " - बाहुबली भीतर से क्रोधित थे उसके परीक्षाफल पे | 
"का!! फ़ोन कहाँ से आया इसके पास? " - ये तो विद्यालय की परीक्षा से भी कठिन प्रश्न था कटप्पा के लिए | 

"बभनन (भूमिहार जाति) के लईकबन फ़ोन रखता है चाची... हम तो साथे बइठल रहते हैं बस " - कटप्पा के पास कक्षा के प्रश्न के अतिरिक्त हर सवाल का जवाब था | 

"फिर तू कइसे बनाया मदनपासवान१२३_कटप्पा का इंस्टा पर प्रोफाइल"- बाहुबली सिर्फ अध्ययन में ही अग्रणी नहीं थे | 

कटप्पा ने कनखी मारके बाहुबली को चुप कराया वरना जीवन का पहला संग्राम वो हार जाता | बात बदलते हुए बोला-

"पूरा गाँव के बभनन के लइकन बर्बाद कैले है चाची"
"कइसे ?" - बाहुबली की माँ  कटप्पा को खाने की थाली बढ़ाते हुए बोलीं | 
"दिन में सब पीपल के नीचे मोबाइल चलाता है आउ रात में मंदिर के बाहर गाँजा फूँकता है"
"तुम तो नहीं न कटप्पा ? " 
"न चाची... एकदम न... इ तो कल भइया घरे बताया था त पापा बड़ी पीटे थे उसको... कि बभनन दुसधन करित रह जाएगा ज़िंदगी भर..."

रात जिस दर से बढ़ने लगी, कटप्पा की वीरता उसी दर से घटने लगी | उसे अब घर जाना था - आँखों से आँसू आने लगे, डण्डे की धुलाई सोचकर | 

बाहुबली की माँ ने कहा - चल हम छोड़ देते हैं, कोई नहीं मारेगा | 
"सच चाची ! " - कटप्पा इतना ही बोल पाया | 

घर पहुँचकर सहमे क़दमों से पिता के पास भागा | माँ का क्रोध वो भाँप गया था इसलिए चाची को इशारे से उसके पास बैठने को बोल दिया | एक कमरे के घर में उसे सबसे सुरक्षित स्थान पिता के पास ही लगा | भाई को वो भल्लालदेव ही समझता था | 

अंदर जाकर भी मार खाने का भय वीर कटप्पा के अंदर बना हुआ था | भयभीत सेनापति बार- बार बाहर झाँक रहा था कि चाची चली तो नहीं गयीं कि तभी  चनेसर ने पूछा - खाना खाया ?
"हाँ चाची ने खिला दिया था"
"चल सोते हैं फिर"  - पिता का यह वाक्य उसे आज न मार खाने का सबसे बड़ा आश्वासन लगा | सोचा - कल का अब कल देखेंगे |  

जब दोनों सोने लगे तो बभनन-दुसधन वाली चाची से हुई बातचीत कटप्पा मजे में पिता को सुनाने लगा | चनेसर मारने की वजाय हँसने लगा और पूछा -  "पता है चाची का हैं ?"
"का ? " - कटप्पा ने पूछा | 
"बाभन!"
 "का !!!" - कटप्पा अंदर तक हिल गया | कल ही इस्कूल से पहले चाची के घर जाएगा और बोल देगा कि भइया इ सब उसको सिखाता है | 

"चाची अच्छी है, बुरा नहीं मानेगी" - ऊपर फ़ूस की छत को देखते हुए वो सोच रहा था पर बाल-चिंता की सिकन माथे पर यथावत बनी हुई थी | 



 
 



Saturday, August 2, 2025

छठ

व्हाय आर यु लीविंग दादी? चिन्मय की नन्ही उँगलियों ने मिश्रा जी की पत्नी की साड़ी के आँचल की एक कोरी को खींचा | 

गोइंग इंडिया... भारत...  देन माय विलेज.. इतनी ही अंग्रेजी आती थी मिश्रा जी की पत्नी को पर काफी था पोते को समझाने के लिए | उसके माथे को छुआ और ढेर सारा आशीर्वाद दिया |  

चिन्मय अभी चार साल का था और उसको इतना ही पता था कि इंडिया उसके डैड का घर है जहाँ वो आज तक नहीं गया | अब कोरोना ख़त्म हो गया है तो इस साल जाएगा - छठ जैसा कोई त्योहार है, उसी को मनाने |

प्रभाकर और उसकी वाइफ रीता ने मिश्रा जी और उनकी पत्नी को न्यूयॉर्क एयरपोर्ट छोड़ा और वहाँ से वे भारत आ गए | अगली शाम गाँव के दलान पर दोनों चाय पी रहे थे जब चिन्मय का वीडियो कॉल आया -

हाउ आर यु दादी? चिन्मय अपने आयरन मैन वाले टॉय के साथ खेल रहा था |  
गुड बेटा- बोलकर ठिठक सी गईं | 
सी यू इन इंडिया दिस इयर फॉर छठ- काफी खुश था वो | 
यस यस - दादी मुस्कराई | 

बात ख़त्म हुई तो उदासी शाम के साथ गहराने लगी | बड़ा सा पुराना घर था जिसकी दीवारें प्लास्टर के लिए तरस रही थीं | आँगन से सब्जी के तीन-चार लत्ते उन्हीं दीवारों के सहारे छत तक पहुँच गए थे | कोने में एक हरा रंग का चापाकल भी था - बूढ़ों के पानी का सहारा | घर के पीछे बड़ा फूस का घर था जिसे गाय, बैल के रहने के लिए अरसों पहले बनाया गया था | अब एक भी जानवर नहीं थे | कुल मिला जुलाकर जब रात हुई तो पति-पत्नी इस खंडहर होते घर के एक रोते कमरे में जाकर सो गए और उधर प्रभाकर और उसकी वाइफ अमेरिका में एक सॉफ्टवेयर कंपनी के ऑफिस में लैपटॉप के सामने बैठ गए | एक तरफ आँखें सूखी दीवार को देख रही थीं और दूसरी तरफ सुनहरे भविष्य को | 

सुबह हुई तो गाँव के लोग मिश्रा जी से मिलने आए | 

"विदेश में मजा आया चचा?"
"बहुत... का बढ़िया जगह है... मत पूछो " - बाहर से मिश्रा जी बोल रहे थे | "बेकार... कैद थे एकदम" - अंदर से बोल रहे थे | 
"सुनते हैं एकदम साफ़ हवा है चचा?"
"अरे! इतना साफ़ कि रात को चाँद पर का पत्थर गिन दो " और अंदर से - "हवा का अँचार डालना है!!"
"प्रभाकर कइसा है चचा? बड़ा आदमी बन गया अब तो "
"हाँ ! सब भगवान् की दया है " और अंदर से - "अचिवर बनना है लाइफ में.. इंसान पैदा किये थे... मशीन बन गया "

कोने से मिश्रा जी की पत्नी वही सुन पायीं जो बाहर से मिश्रा जी बोल रहे थे | अंदर की आवाज़ सुनने का यंत्र अब तक बना नहीं था |  थोड़ी क्षुब्ध हुईं पर बेटे की बड़ाई की ख़ुशी के तले वो निर्दोष गुस्सा जहन में ही कहीं दब गया | 

दीवाली के बाद छठ आने वाला था | घरों में चावल, गेहूँ धोकर सुखाए जाने लगे थे - खीर और ठेकुआ बनाने के लिए | गन्ना , पाँच फल , नारियल - सबका इंतज़ाम होने लगा था | मिश्रा जी में अजीब उत्साह था | उनकी पत्नी हर साल की तरह इस बार भी छठ कर रही थीं पर जिसके लिए छठ किया जा रहा था वो सालों बाद आनेवाला था |  

"इ बार त बगल के गाँव में भी परसाद जाएगा कारण प्रभाकर का दोस्त सब मिले आएगा " - मिश्रा जी हँसते हुए बोले | 
"हाँ त बबलू से आधा मन जादा गेहूँ धुलवाए हैं" - पत्नी स्त्री-रूप वाला मुँह बनाकर बोलतीं जैसे मिश्रा जी को अकेले सिर्फ चिंता है | 

फ़ोन की घंटी बजी | बबलू दौड़कर फ़ोन उठाने गया | 

"हैलो चिन्मय" बबलू ने कहा फिर फ़ोन मिश्रा जी को दे दिया | 
"दादू, डैड एंड मॉम आर वेरी बैड" चिन्मय ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था | 
"गिव मी फ़ोन प्लीज चिन्मय" - पीछे से आवाज़ आयी और प्रभाकर ने फ़ोन ले लिया | 
"दादा हमलोग छठ में नहीं आ पाएँगे" - प्रभाकर की ये वाली आवाज गेहूँ धो रही मिश्रा जी की पत्नी के कानों तक भी पहुँची और हाथ गेहूँ में ही रुक गए  | 
"का हुआ प्रभाकर?"
"वो एक अर्जेंट मीटिंग आ गई है - छोड़ पाना मुश्किल है"
"कोई बात नहीं बेटा, काम जादे ज़रूरी है... छठ तो अगले साल भी आएगा " - इससे ज्यादा मिश्रा जी कुछ नहीं बोल पाए और फ़ोन रख दिया | 

शाम हो रही थी |  दोनों पति-पत्नी छत पर चाय पीते हुए दूर फलक पर डूबते सूरज को देख रहे थे | बिलकुल शांत ! कोई बातचीत नहीं - जैसे मूक होकर ही एक दूसरे की आत्मा को पढ़ रहे हों | अचानक भावना के बयार ने बूढ़ी औरत को तोड़ दिया और फफक पड़ीं - काहे ला विदेश भेजे थे... बोलती हुई नीचे चली गयीं | मिश्रा जी छत पर सूरज को ही देखते रहे| 

छठ आया | घरों में शारदा सिन्हा गूंजने लगीं -

"केलवा के पात पर उगे लन सूरूज मल झाँके झुंके "
"हे करेलु छठ बरतिया से झाँके झुंके"

मिश्रा जी हाथ में लोटा लिए हर साल की तरह अर्ग दे रहे थे | पत्नी पानी में सूप लिए,  साड़ी में पूर्णतः भीगी हुई , नाक  तक सिन्दूर लगाए सूरज को देखते हुए गोल-गोल घूम रही थीं | 

शारदा सिन्हा अभी भी वहीँ थीं- 

"हमरो जे बेटवा... कवन अइसन बेटवा से उनके लागी..."

सुनकर आँखों से आँसू छलक पड़े पर गोल घुमना नहीं रुका | मिश्रा जी बस इतना ही बोल सके - काहे रोती हो ? हम तो ज़िंदा हैं न |