बनारस की औरतें भले ही मॉडर्न बनने लगें रीता... आदमी तो ताउम्र चाय ही पियेगा... क्यूँ भइया ? - अपने बेटे रोहन की तरफ देखते हुए प्रांजल ने थोड़ा व्यंग्य और थोड़ा गर्व से जवाब दिया |
"मरो देहाती भुच्चड़ बनारसी तुम, मैं ज़रा ज़ारा के शो-रूम से आती हूँ "- रीता बोली |
"और हाँ माँ- बाबूजी को स्टेशन से लाना मत भूल जाना, अभी तो आये थे चार महीने पहले... शांति से बनारस में टिका नहीं जाता "
"बेटे का घर देखने भी न आयें ?" - इस बार प्रांजल की बातों में थोड़ा गुस्सा था पर तब तक रीता ठाक से दरवाजा बंद करके निकल चुकी थी|
"देख रहे हो रोहन भइया फटा हुआ कपड़ा खरीदेंगी हमारे क्रेडिट कार्ड से अब और स्टाइल बताएँगी इसको" - बेटे के सामने माहौल को सामान्य करने के लिए प्रांजल हँस पड़ा |
"इट्स स्टाइल ब्रो - बोलेगी पापा जबकि मैंने मम्मा का बचपन का फोटो देखा है कैसे बनारस में भैंस के उपले ठोकती थीं " - रोहन भी मजे लेता |
"किस्मत है भइया... किस्मत"
"आइ ऑल्सो वांट टू ज्वाइन यू फॉर दादू पिक-अप"
"बिल्कुल चलिए"
फिर दोनों स्टेशन जाकर माँ-बाबूजी को ले आये |
रीता भी तब तक घर आ चुकी थी और ज़ारा की जगह शुद्ध देशी परिधान में उसे आना पड़ा था | सिन्दूर - जिससे उसे मुंबई आकर स्किन अलर्जी होने लगी थी, भी लगाना पड़ा था | एक तो इस डाउनमार्केट लुक से उसे प्रॉब्लम थी और दूसरी उसकी प्राइवेसी - इन्हीं दो कारणों से न उसको बनारस जाना था और न बनारस से किसी का आना उसे पसंद था | हालाँकि उसकी पूरी ज़िंदगी एक कमरे के घर में गुजरा था जहाँ प्राइवेसी शब्द किसी डिक्सनरी में नहीं होता पर अब वो मॉडर्न लेडी थी - किट्टी जाती थी, इंडिविजुअलिटी और प्राइवेसी जैसे शब्द की अहमियत समझती थी, ओपन माइंडेड होना क्या होता है - वो उसे मुंबई आकर पार्टियों में समझ आने लगा था |
रोहन मस्त दादु-दादी के साथ बाल्कनी में खेल रहा था | दादू-दादी गौरवान्वित थे, ख़ुश थे कि बेटे ने इतना अच्छा घर खरीदा था | प्रांजल माँ-बाबूजी की ख़ुशी से खुश था पर कुल मिला-जुलाकर रीता अकेली इन खुश लोगों के बीच अब दुखी थी |
"क्या हुआ रीता ? ऐसे क्यूँ बिहैव कर रही हो? पाँच साल पहले तो अम्मा-बाबूजी के साथ साल-साल तुम ख़ुशी से रही थी " - - प्रांजल ने रात को सोते समय पूछा |
"वो समय अलग था प्रांजल और अब अलग - मेरी अपनी भी एक लाइफ है जो रुक जाती है इनके आने पर "
"अच्छा! रोहन को उस समय पालना था तो वे अच्छे थे - नहीं ? "
"जो समझना है समझो मुझे कोई एक्सप्लानेशन नहीं देना - और ये सिर्फ तुम्हारे पेरेंट्स के लिए नहीं मेरे पेरेंट्स के लिए भी ट्रू है"
"बट डज दैट जस्टिफाई योर बिहेवियर ?"
"मैंने कहा न - मुझे कोई एक्सप्लानेशन नहीं देना!!!"
फिर दोनों उलटे करवट लिए अपनी-अपनी दीवारों को देखने लगे | प्रांजल के दीवार के उस तरफ अम्मा सो रही थीं रोहन के साथ | बाबूजी बाल्कनी में बीड़ी पी रहे थे इसलिए सारी बातें उन तक पहुँच गईं |
अगली सुबह बाबूजी ने अकेले में प्रांजल को बुलाया - बहू से काहे को हमारे लिए लड़ता है ?
प्रांजल शांत नीचे फर्श को देख रहा था |
बाबूजी फिर बोले - देखो भइया ! हम तो अपनी ज़िंदगी जी लिए | हमारे लिए अगर तुम अपनी गृहस्थी खराब करोगे तो हम का खुश रहेंगे ? रोहन पर का असर पड़ेगा कभी सोचे हो भइया ?
प्रांजल अभी-भी नीचे फर्श को देख रहा था |
बाबूजी आगे बोले - हमारी टिकट करा दो जल्दी से और बहू को बोल दो चाचा की तबियत सही नहीं इसलिए जाना पड़ेगा |
प्रांजल का चेहरा अचानक से बाबूजी पर गया और आते आँसू को पलकों पर ही रोक लिया | प्रांजल उस दौर का बेटा था जिसमें बाप बेटे से प्यार तो बहुत करता था पर गले नहीं लगा पाता था | एक झिझक थी जो बनी रहती थी | दोनों पलकों पर बूँदों को रोके अपने-अपने कमरे में ऐसे गए जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो |
फिर प्रांजल ने दोनों की टिकट करा दी | रोहन को दादी के जाने की खबर मिली तो वो रोने लग गया | दादी ने उसे समझाया कि अबकी बार दोनों नाव से बनारस में गंगा आरती देखेंगे |
ट्रेन में अम्मा ने पूछा - इतनी जल्दी क्यूँ आप लौटने की ज़िद कर दिए ?
"चिड़ियाँ के बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो उनकी उड़ान भी अपनी होती है और घोंसला भी अपना" - फिर बाबूजी गमछा से अपनी आँखों को ढँक लिए | अम्मा चुपचाप बाहर खिड़की से उलटी दिशा में दौड़ते पेड़ों को देखने लगीं - अब आँचल को आँख पर रखने की उनकी बारी थी |
उधर प्रांजल चाय के साथ बाल्कनी में बैठा था | इस बार आँखें स्वतः बंद थीं | कुछ अंदर से उसे काट रहा था - बनारस की गलियाँ कहीं यूरोप के बिज़नेस से बेहतर तो नहीं थीं ?