Tuesday, July 29, 2025

बचपन

सूरज आज बेर के पेड़ के पीछे वाले तालाब में डूब रहा था, पानी पर लाल रंग की थोड़ी चौड़ी लकीर खींचते हुए | पुलेन्दर काँटों के बीच उसी पेड़ पर बैठा बेर खा रहा था | सूर्यास्त की सुंदरता से उसे कोई लेना-देना नहीं था | स्कूल में छुट्टी की घंटी बजती थी और अगले ही क्षण वो बेर की पतली टहनी के दोनों ओर पैर लटकाए मिलता था | बस्ता नीचे जड़ के पास फेंका पड़ा होता था | ऐसी बात नहीं कि उसे बेर के फल से बड़ा लगाव था, मौसम के हिसाब से वो पेड़ और फल - दोनों बदलता रहता था | एक चीज़ बस नहीं बदलती थी - पेड़ के नीचे वाले बच्चों की झुंड और इसी झुंड से शायद पुलेन्दर को लगाव था | 

अब सूरज तालाब के अंदर चला गया था | कुछ मछलियाँ इधर-उधर उछलती हुई धुँधली सी ज़रूर दिख रही थीं, शायद सूरज को चबा रही हों | पेड़ के नीचे का झुंड गायब हो गया था और पुलेन्दर बस्ते के साथ तालाब के किनारे आकर उन मछलियों को देखने बैठ गया था | बीच बीच में पानी में ढेला फेंकता और फिर भागती मछलियों पर ज़ोर ज़ोर से हँसता | आज उसका मन घर जाने का हो ही नहीं रहा था - कारण कल से ये पेड़, यह तालाब, वो झुंड, ये बस्ता और घर की वो सीढ़ी जो उसे सबसे प्यारी थी- सब छूटने वाला था | 

उसकी अम्मा को कोई बड़ी बीमारी हुई है जिसके लिए दादा ने खेत बेचा है- ऐसा गाँव वाले बोलते हैं | अम्मा का ईलाज कराने दादा और एक दीदी बम्बई गए हैं - ऐसा उसे दादी ने बताया था | जाते वक़्त दादा ने दूसरी दीदी को कुछ पैसे दिए थे कि पुलेन्दर को हॉस्टल में डाल दो, बिगड़ता जा रहा है, गाँव में एकदम नहीं पढ़ेगा - ऐसा उसे खुद दीदी ने बताया था | 

कल उसे हॉस्टल जाना है इसलिए अँधेरा होने तक पुलेंदर वहीँ बैठा रहा | रात हुई तो उसे भूतों का डर सताने लगा और बस्ता उठाकर सरपट घर की तरफ भागा | 

उसका लोहे का बक्सा तैयार था जिसमें कपड़े, साबून, तेल, खाने के कुछ सामान और एक थाली-कटोरी रख दिया गया था | बक्सा देखकर ही उसका रोने का मन हुआ और भागकर वो अपनी सीढ़ी वाली गुप्त जगह पर सिसकने लगा | सबके सामने रोना उसे कमजोर दिखने जैसा लगता था | कल को पूरा झुंड अगर जान गया कि पुलेन्दर रो रहा था तो उसकी क्या ही इज़्ज़त रह जाएगी | फिर उसे लगता कि कल तो वो यहां होगा ही नहीं और रो पड़ता | 

रात हुई, पुलेन्दर छत पर जाकर तारों  के साथ खेलने लगा | अम्मा के साथ रोज-रोज तारों की अलग-अलग बनावट खोजना उसका सबसे पसंदीदा काम था | कब आँखें लगीं उसे पता ही नहीं चला | 

सुबह दरवाजे पर तन्नू का रिक्शा आकर लग गया | वो बक्सा- जिसमें पुलेन्दर का सारा घर समाया था, रिक्शे पर रख दिया गया | उस छोटे से घर को लिए पुलेन्दर दीदी के साथ जहानाबाद के हॉस्टल में पहुँच गया | छोड़कर आते वक़्त दीदी ने बस इतना कहा - " ठीक से रहना " | पुलेन्दर रिक्शे के पीछे-पीछे मेन रोड तक आया था और तब तक रिक्शे को देखता रहा था जब तक वो आँखों से ओझल न हो गया... हाथ से दोनों आँखों के आँसू पोछते हुए फिर हॉस्टल के अंदर चला गया था |

हिंदी की कक्षा चल रही थी कि बाहर से दरवान की आवाज आयी - पुलेन्दर कुमार !!! गार्जियन आए हैं | किसी भी बच्चे के अभिभावक के आने पर दरवान यही वाक्य दोहराता था - बस नाम बदलकर | पुलेन्दर बाहर आया तो देखा दीदी आयी है, बोली - घर चलो ! तुम्हें लिवाने आये हैं | कुछ दिन रहके आ जाना | पुलेन्दर बहुत खुश हुआ | रिक्शे पे बैठा तो शहर से गुजरते हुए उसे अपना गाँव दिखने लगा- वो पेड़ , मैदान, तालाब, घर की सीढ़ी , दोस्तों का झुंड - सोचकर ही उसके मन में गुदगुदी होने लगी | जाके सबसे पहले क्रिकेट जमा देना है, फिर मछलियों और कुत्तों पर मिलके ढेला चलाएंगे - बाल-मन सोचता रहा और तन्नू के रिक्शा का पहिया घुमता रहा | 

कुछ ही समय में रिक्शा घर के बाहर पहुँच गया | पुलेन्दर रिक्शा से कूदकर अहाते के अंदर भागा तो उसे सबसे पहले दीदी दिखाई दी जो बम्बई गई थी | वो और खुश हो गया , चिल्लाते हुए घर के अंदर जाने लगा- अम्मा ! अम्मा ! तभी उसे दीदी पकड़ ली और रोने लग गई फिर वहाँ एक-एक करके सब रोने लगे | पुलेन्दर को समझ नहीं आया कि क्या हुआ,  तभी उसकी नज़र दादा पर गयी - धोती पहने, बाल छिलवाए वो बैठे थे | बस इतना बोले - अम्मा नहीं आयी, बोली अब कभी नहीं आ पाएगी पर जाते वक़्त ये बोलकर गई थी कि पुलेन्दर को बोल दीजियेगा कि ध्यान से पढ़ाई करे ऊपर से सब हम देखेंगे |  

पुलेन्दर भागता हुआ सीढ़ी के पास गया - वही उसकी गुप्त जगह |  

रोया, बहुत रोया फिर उसका झुंड आया और सब मैदान में क्रिकेट खेलने चले गए |  

थका हुआ रात को लौटा , छत पर सबके साथ सोने गया | घर में किसी को नींद नहीं आ रही थी | सब बस आँख खोले आसमान को देखते हुए बिछावन पर लेटे हुए थे | मरघट सी शान्ति थी |

पुलेन्दर तारों में अम्मा को ढूंढ रहा था और एक जहाज़ बनाने का प्लान बना रहा था जिससे उस तारे तक पहुँचा जाए |      


    

Thursday, July 17, 2025

सड़क वाली नदी

बजरंग ओवैसी और अयूब तिवारी का घर पड़ता तो था इस्माइल टोला और दुबे नगर में,  पर दोनों घर मोहल्ले की सीमा पर बसे होने के कारण आमने-सामने थे | होली हो या ईद - उल्लास दोनों घरों में समान होता था | ऐसा गहरा और सही मायने में धर्म-निरपेक्ष सम्बन्ध उनके दादा-परदादा के ज़माने से चला आ रहा था |  

दोनों के पिता इनसे भी चार कदम  आगे थे | बजरंग के पिता थे - शमसुद्दीन ओवैसी  और अयूब के पिता थे - महेश नारायण तिवारी | दोनों लंगोटिया यार- वैसा वाला जो बचपन से ही एक-दूसरे को लंगोट में देखे होते हैं | शमसुद्दीन ने गोश्त तक खाना छोड़ दिया था और महेश जी शमसुद्दीन के नमाज़ के वक्त मस्जिद में ही पड़े होते थे | शायद इसी दोस्ती की वजह से बजरंग ओवैसी और अयूब तिवारी जैसा अनोखा नाम रखना उनके लिए बड़ा सामान्य था | दोनों बूढ़े हो चले थे पर मंदिर के पीपल वाले पेड़ के नीचे ताश खेलते और झगड़ते रोज दिख जाते थे |  

कुछ और बूढ़े मजे लेते थे- भाई, तुम दोनों को या तो हिन्दू होना था या मुसलमान - समझ नहीं आता खुदा गलत कर गया या भगवान्... फिर सारे बुड्ढे हँसने लगते | 

शमसुद्दीन का जवाब आता- मियाँ ! हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप के साथ मिलकर अकबर बादशाह के खिलाफ एक मुसलमान जंग में लड़ा था, पता है कौन? 

बुड्ढे पूछते- कौन ? 

हाकिम खान सूरी... हम वही मुसलमान हैं... बात करने आ जाते हो मियाँ! 

सारे हिन्दू-मुसलमान बुड्ढे फिर दाँत निपोरने लगते |   

बजरंग की दर्जी वाली और अयूब की पूजा वाली दुकान बिल्कुल अगल-बगल थी| लोग अयूब से पूजा के लाल-पीले कपड़े खरीदकर बजरंग के पास सिलवाने आते थे | पूरा क़स्बा बजरंग और अयूब के घरों की मित्रता पर गर्व करता था | 

आखिरकार एक दिन शहर से घुमता हुआ चुनाव यहाँ आ गया जैसे रेगिस्तान वाली धूप कभी-कभी मैदानी इलाके में पहुँच जाती है| चुनाव राजनीति लाया जैसे धूप गर्मी लाती है | राजनीति फिर धर्म, जाति, क्षेत्रवाद और न जाने क्या क्या लेकर आई  जैसे गर्मी पसीना, शरीर पर दाने, चक्कर और न जाने क्या-क्या लाती है | 

दुबे नगर और इस्माइल टोला के बीच की वो कच्ची सड़क देखते-देखते एक ऐसी नदी बन गई जिसके दोनों किनारे कभी नहीं मिलते |  हाकिम खान सूरी साहब अकेले नमाज़ अदा करने लगे और महाराणा प्रताप अकेले मंदिर के पीपल के पेड़ के नीचे बैठने लगे | ताश के पत्ते किसी कोने में अलग दुबक गए थे | 

बजरंग और अयूब  पर नए ज़माने के थे, विचार भी नया था इसलिए दुकान पर तो दुनिया के सामने हिन्दू-मुसलमान बने रहते पर रात होते ही सड़क वाली नदी पर उनकी साइकल वाली नाव साथ में चल पड़ती |  एक टीले पर जाकर दोनों साथ बैठ जाते | 

अब्बा तो जीते जी मर गए हैं , उनकी ज़िंदगी देखी नहीं जाती | मस्जिद में बाकी लोग मिलते हैं चुनाव की तैयारी करते हैं पर अब्बा बिना कुछ बोले नमाज़ पढ़कर घर आ जाते हैं  - बजरंग मायूस था |

रुको, कुछ करता हूँ कल - अयूब ने दिलाशा दिया| 

अगले दिन दोनों अपने-अपने स्तर से अब्बा और पिता को समझाकर दुकान चले गए | 

आज रात को सड़क वाली नदी पर साइकल वाली चार नावें चल रही थीं - झूमते हुए | 


 



 

 

Thursday, July 10, 2025

टोली

                     

बुधवार को लगनेवाली सब्जी-मंडी से इस साल बरसात की अनबन चल रही है| हफ्ते के बाकी दिन आप उमस से जलो या मरो - बादलों को कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ता पर मंडी वाले दिन बिन बताए मेहमान की तरह ठीक शाम में आ धमकते हैं| बाजार में फलों को बढ़िया दिखाने वाले लाल-पीले बल्ब भी दो-चार तोड़ते हैं| 

कल फिर बारिश हो रही थी, बिजली भी चमक रही थी| कुछ बादल भी थोड़ी ऊँचाई तक आ गए थे जैसे अपार्टमेंट की छत को अपने पैर की उँगलियों से छूने की कोशिश कर रहे हों| दुकानदारों की लाचारी पर बिजली ज़ोर ज़ोर से कडककर अट्टहास कर रही थी| कुछ बच्चे उस डरावनी अट्टहास पर खिलखिलाकर हँस रहे थे और खाली पाँव यहाँ-वहाँ जमे छिछले पानी पर जम्पिंग जपांग कर रहे थे| बादल उनके लापरवाह मन पर और क्रोधित होता था, बारिश और तेज करता था पर उनकी ख़ुशी उल्टा और बढ़ जाती थी| 

एक बच्चा हाथ में पॉलीथिन लिए उनमें सबसे आगे चल रहा था- शायद ट्रूप-लीडर होगा| उसके पीछे तीन-चार छोटी-छोटी बच्चियाँ थीं - शायद इन्फैंट्री होंगी| ट्रूप लीडर के एक पाँव में लाल और दूसरे में सफ़ेद रंग का चप्पल था- दोनों के ही फीते टूटे हुए थे जिन्हें किसी पतले तार से जोड़ दिया गया था| हाथ के पॉलीथिन में एक गाज़र, एक-दो टिंडे और कुछ आलू बारिश की बूँदों के पीछे धुँधले दिखाई दे रहे थे| इन्फैंट्री के हर बच्चियों के हाथ में भी एक-एक पॉलीथिन था- कुछ खाली तो कुछ में एक-दो सब्जियाँ - हाँ!बारिश की बूँदें हर जगह थीं| इनके पाँव में चप्पल नहीं थे, चेहरे पर ख़ुशी ज़रूर थी| फटे कपड़ों में बारिश में भीगता पूरा दल और दल की ख़ुशी बादलों के शोर पर मंडी की तरफ से तमाचा था| 

काफी समय से मैं इन बच्चों को देख रहा था| नज़दीक जाकर मैंने ट्रूप लीडर से पूछा - "कहाँ रहते हो?" 
मेरे सवाल के जवाब में एक सवाल आया- "अंकल जी, एक किलो आलू दिला दोगे?" वह हल्की-सी स्माइल के साथ बोला| 
फिर पीछे से सवाल का जवाब भी आया- "हमलोग बिजली आफिस के पीछे वाली झुग्गी में रहते हैं|"
"हाँ, दिला दूँगा|" - बारिश में भीगते हुए मैंने उत्तर दिया| 
मेरा जवाब सुनकर उसकी मुस्कान हँसी में तब्दील हो गई और पीछे वाली पार्टी यहाँ-वहाँ पड़े छिछले पानी पर छप-छप करके उछलने लगी| 

आलू दिलवाकर मै आगे निकल गया| लौटने में काफी समय हो गया| जब लौटा तो बच्चे भी घर लौट रहे थे|  अब उनके पॉलीथिन थोड़े भरे से दिख रहे थे| उनका उछलना ज्यों का त्यों बना हुआ था, सबकी ख़ुशी अक्षुण्ण थी| 

"दो-तीन दिन का जुगाड़ हो गया अंकल जी" - हँसते हुए लीडर ने बोला| बदले में मैंने भी मुस्कुरा दिया| 
"बाय-बाय अंकल जी" - पूरी टोली चिल्ला रही थी|